Tuesday, January 31, 2012

अधनंगा मधुमास

धारावी. आभार: गूगल.
लिखें कुछ मादकता के एहसास,
अधनंगा चला आ रहा है मधुमास,

उनसे पूछो आमो के बौर की 'आस',
जो गुठलियाँ खाएं या करे उपवास.

'ब्रिजो' के नीचे रहने वालो को नसीब,
मल-मूत्र के फूले पलाश का सुहास.

ऐसा लगता है कि जवानी फूट रही,
उसको माघ में भी नहीं था लिबाज.

हूक सी उठाती है, कोयल की आवाज,
माँ की छाती से जब दूध की नहीं आस.

'भींचकर' आलिंगन होगा, चुम्बन होगा,
आया है चुनाव इस बार फागुन के पास.    

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For my non-hindi speaking friends, an attempt to simplify the meaning: 

What does spring bring?

1. Lets write some feelings of wine
   Spring is coming half naked. 

2. They will tell the expectation of blossomed mangos,
   who either eat core of mango or do fast.

3. People who are living beneath bridges can get,
    fresh breeze of toilet. 

4. they because adult It seems,
 but they neither had cloths in winter. 

5.  There is a wince after a song of merle,
   When child do not have any expectation of milk from mother. 

6. You will receive a great amount of hug and kisses,
    Election is coming this time around spring. 

Sunday, January 29, 2012

‘हुस्न के जलवो से फिर’

‘हुस्न के जलवो से फिर’ उसकी कलम मजबूर है,
साभार: गूगल 
‘घर सजाने’ के लिए लिखता है, जो मशहूर है.

धर्म ग्रंथो और बुतो को, बेफिक्र नंगा कर दिया,
‘ब्रिटेन की नागरिकता’ पाने का यही दस्तूर है.

झूम जाती महफिले, की भाव ऐसे भर दिए,
शायरी लिखता गजब है, यदि ‘बियर’, ‘तंदूर’ है.

‘अलख की आग’ लगा, सत्ता समूची उलट दी,
इस बार मिया ‘ग़ालिब’ को ‘पद्म श्री’ मंजूर है.

‘मटेरियल’ के होड़ में, बस्तिया गन्दी छान दी,
एहतियातन, ‘बिसलरी’ से धो के खाते अंगूर है.

शान में चोखे लिखे, बजते हैं ‘छब्बीस जनवरी’ पर,
उससे पूछो ‘हश्र क्या’ जिसका मिटा सिन्दूर है.

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मै अगर ये कहू की ये रचना ‘अदम’ साहब को श्रद्धांजलि के लिए है, तो छोटे मुह बड़ी बात होगी.
इसलिए मै ये कहोंगा की उनको एकलव्य की तरह दिल में मूरत बना कर पूजते हुए कुछ लिख दिया.

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For my friends who are not comfortable with Hindi, an attempt to convey the meaning:

1. 'because of beauty' his pen is compelled,
    'to decorate his house' he write, what is famous.

2. He tainted the image of religious books and god statues
     its easier way to get citizenship of England.

3. His poems create a sensation in gatherings,
    He write beautifully when Bear and chickens are served.

4. He changed the leadership with his poems
    he must be nominated to 'padm shri' award this year.

5. In search of material, he visited lots of slums,
    As a precaution, he eat grapes washed in 'Bisleri'

6. Written patriotic song, used to run on republic day,
    But what about widows, of those solders.

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In memory of great Hindi poet 'Adam Gondavi' who just died on
18th of dec 2011. He was common man's poet and lived like that.



Friday, January 27, 2012

आशाओं के दीप.

आशाओ के दीप जला चल!
कहाँ भास्कर भारत का, तोड़े अंधियारे के बादल! 

फैला दे उजाले का मंगल,
आशाओ के दीप...........

घने तिमिर जीवन में अब,
आशा के दीप जलना है,
युवा शक्ति के भटके मन को,
विजय द्वार दिखलाना है.

बाधाएँ अभिकारक है, तू, उमड़ घुमड़ के चलता चल! 

फैलता जा जीवन पल पल,
आशाओ के दीप जला चल!

पंथ पंथ चिल्लाने से क्या,
कहीं पंथ मिल जाता है?
हाय! किनारे बैठ सोचने से,
क्या मोती आता है?

डूब और गहरे में जा कर, यहाँ का उथला है जल!

स्वेद की बूदे देंगी हल, 
आशाओ के दीप...........

प्रान्त और भाषा से या फिर,
फर्क कहाँ पड़ता है वेश का,
टुकडे टुकड़ो में बटकर के
भला हुआ है कब स्वदेश का,

जाति-धर्म के झगड़े सारे, राष्ट्र हितो को रहे निगल!

सबके जख्मो पर मलहम मल,
आशाओ के दीप......

सबका हिस्सा है विकास में,
जैसे सूरज के प्रकाश में,
निर्धन को भी रोटी कपड़ा-
दिशा यही हो हर प्रयास में.

हर घर में चूल्हा जला नहीं, तो व्यर्थ परिश्रम है केवल!

सच्चे श्रम को तू आज निकल,
आशाओ के दीप......

Thursday, January 26, 2012

चला हो, दिया पूरा हो!


अनिहार बहुत बढ़ गईल, चला हो, दिया पूरा हो!  (अनिहार: अंधेरा)

बर्थ-डे मनय, स्कूल खरतिन बजट नाही,
महगाई कुल छोरि लियेय, कौड़ी बचत नाही.

काव कही हम रोज़गार के कहानिया.
हमरे इहा खुलल बाए, जाति के दुकानिया.

खाए बिना मरै जमूरा हो, चला कि दिया पूरा हो!

घोड़ावा कि नाई भागत, सगरा जमनवा,
ज्ञान-विज्ञान पढ़य, सगरा जमनवा,

हम घुरचालि रही, कुववा म अपने,
दुरगुड निहार रही, गौवा म अपने.

हमार प्रांत बन गईल घूरा हो, चला! अब तो दिया पूरा हो!!

कवन कम बाय, हियाँ के ज़मीनिया,
कहें छोड़ी छोड़ी भागी, आपन पुरनिया,

यहीं जमेक चाही सबके पौवा,
'रालेगाओं' बन सकै हमारौ गौवा,

यहीं संग्राम करो पूरा हो, चिन्गी जलाओ, दिया पूरा हो!

किनकर्तव्या रहे चली ना कमवा,
घर मा बैठी कय,  बदले ना गउवा.

आवा, तनी तनी करा हो जतनवा,
कौनो फल मिलत नाहि, बिना सीचे तनवा.

मसीहा के राह देखब छोड़ा हो!
आपन खाब,अपुनै, करक परे पूरा हो, खुशी से दिया पूरा हो.

लाइफ इन लोकल: रिटर्न ट्रेन

http://www.desiprimeminister.com
सूरज का कम हुआ ताप है, 
उतर गया आज का भी श्राप  है.

कुछ को जल्दी, कुछ को कभी नही!
शाम की अस्मिता पर विवाद है.
  
कभी उड़ जाए, कभी अड जाए,
यही वक्त का त्रास है.
  
दौड़ते, बेचते, झगड़ते, उंघते -
लोगों को अपना घर याद है.

कोई गुनगुना है और कोई उबलता है,
पर सबके अंदर भाप है.

मिमियाना, घिघियाना बंद हो गया है,
समझौते जैसे हालात है.
  
देख रहे खिड़की-दरवाजो से दुबके,
इस भीड़ मे हर दर्द शांत है.
  
बेचता है मीठी गोलियाँ, नन्हे हाथो से,
क्या इसका भी कोई बाप है?
  
बहुत सारी को रोका गया,
उस ट्रेक पर दो-चार फास्ट है.

एक जैसे डिब्बो को कई रंग मे क्यो रंगा?
'इंसान' ही इसका जवाब है.

कौतूहल से बैठी देख रही जनता,
कुछ मनचलो का राज है.

आए थे अपनी मर्ज़ी से, पर अब,
निकालने को बेताब है.

मिला है सबको डब्बा एक जैसा.
कहीं परिहास है, तो कहीं विषाद है.

अभी 'आज' ख़त्म भी नही हुआ,
शुरू कल का हिसाब है.

फिर लौट के आएँगे सजधज कर,
जिंदगी के लंबे चौड़े ख्वाब है.

एक किरण बहुत जरूरी हो गई!


आभार: विकिपेडिया

रात बड़ी देर से है, एक किरण बहुत जरूरी हो गई!
कब तक सर कटाएँ, बगावत जनता की मजबूरी हो गई.

ये कलम नीली नहीं चलती, इसकी स्याही सिन्दूरी हो गई. 
असलहो की दरकार किसे है? हमारी जबान ही छूरी हो गई.

इलेक्शन आने वाले हैं, सरकार की नीद पूरी हो गई.
फिर वोट चाहिए, कौम से मिलने की मंजूरी हो गई.

गाँव में जा के देखे कौन! ऑफिस में खाना-पूरी हो गई.
कोई सम्बन्ध ही नहीं, दोनो भारत में बड़ी दूरी हो गई.

हक अपना पहचान लिया, जिन्दा लाश से जम्हूरी हो गई. 
कई मशाल दिख रही है, चिंगारी की जरूरत पूरी हो गई.

सीने में जलती है तो आग, पेट में - जी हुजूरी हो गई,
अगर चूलें नहीं हिली, तो बात फिर अधूरी हो गई.    

 (चूलें: नीव) ।  (जम्हूरी: जनता)

आजादी का गाना


पेट में नहीं दाना, तन पे नहीं बाना ,
आओ गाएँ 'लता जी' का गाना. 

"मौन व्रत" तोड़ेंगे आज, लाल किले पर,
'भाषण' किसने लिखा? ये तो बताना!

एक दिन का 'ड्राई डे' निकाल ले,
फिर क्या! खाना, खिलाना, मौज मनाना.

देश भक्तो को ढूंढ के लाना,
फिर 'पद्म भूषण' से सजाना.

जो करे ईमान की बाते,
उसे पड़ेगा भूख हड़ताल पर जाना. ("अन्ना जी" को समर्पित)

नया-नया गाल कहाँ से लायें,
'गांधी' बाबा! ये तुम ही बताना!

प्रार्थना पत्रो से काम नहीं चलता,
जनता को पड़ेगा हाथ उठाना.

Wednesday, January 25, 2012

क्या पकिस्तान हमारा भाई है?

वादे करते जाता है,
मुर्गा-रोटी खाता है,
ट्रेने भी चलवाता है. 

पर एक भाई दूसरे के 
हमेशा काम आता है.
इसलिए मुझको है शक!
वो भाई नहीं है.
उसका कुछ और है हक.

रिश्ते की बात करके जाते ही,
कुछ आतिशबाजी करता है. 
अब गावो की बारातो में भी,
तो इंसान जख्मी होता हैं. 

आजादी से है ये विवाद.
क्या पकिस्तान हमारा भाई है,
या है वो हमारा दामाद!

जश्न मानते रहो आजादी है

जश्न मानते रहो आजादी है
किसे-किसे खाना दे, पानी दे,
बड़ी आबादी है
Courtesy : Wikimedia

कैसे बचाएं अपना वजूद,
हर रोड पर, हर ऑफिस में,
चौराहे या जेब में 'गाँधी' है!

ठण्ड और धूप में उगाया-
ऊख जला बैठा, सच है!
किसान बड़ा फसादी है.

खाली दीवारें है कमरे की,
सुकून वाली, "सोफ्ट कॉपी" में है,
बाकी सब में बर्बादी है.

ऐ झंडा फहराने वालो!
गिरेबान में झाको,
"मरा अभी-अभी गद्दफ्फी है".

स्लम: Slum


कुछ टूटे फूटे मकां,
किसी के लिए घर.
किसी के लिए स्लम.

प्लास्टिक की छते,
प्लास्टिक से पटी नालिया,
पर जीवंत चेहरे.

दुःख, दर्द, हसी, ख़ुशी, समेटे.
हर भाव साफ़ साफ़ दिखाते.

उन्ही झोपड़ियो के बीच,
मंदिर है,
नायी की दूकान है,
समोसे वाला, अखबार वाला.
सब है, उसी छोटी सी जगह में.

अब वहा नई दुनिया की-
सबसे ऊची ईमारत बनेगी.

सब पर बुलडोजर चल गया.

अब नहीं दिखाती माये,
कतार लगाये,
बच्चो के स्कूल से -
छूटने के इन्तजार में.
बगल का स्कूल भी ढह गया.
वहां इंटर नेशनल स्कूल खुलेगा.

जगह वही है.
किसी के लिए स्लम,
किसी के लिए घर,
किसी के लिए फ़्लैट.

Tuesday, January 24, 2012

पीपल का पेड! Peepal


बहुत हरा भरा सा था,
कई पतझड़ो से खड़ा था. 


हाथियो ने बहुत खाया. 
राही को भी दिया छाया.


सावन की कजरी का झूला. 
कई चिडियो का घोसला. 


मिन्नतें मागते थे लोग, 
डोरा बंधाते थे लोग. 


सिन्दूर और नारियल चढ़ता. 
किसी का भूत भी उतरता. 


डामर-कंकड़ की चढ़ गया भेट. 
रास्ते में था एक पीपल का पेड!

भाषा ज्ञान: Bhasha Gyaan

मै शुरू शुरू में चेन्नई (तब मद्रास था) पढाई करने गया, तो अक्सर दोस्तों से मिलाने बंगलोर जाया करता था. जहाँ तक संस्कृति सभ्यता की बात है, उत्तर भारत में पाले बढे होने के कारण मुझे बहुत ही ज्यादा अंतर महसूस हुआ. धीरे धीरे अभ्यस्त हो गया. और मै इतना बताने में भी सक्षम हो गया कि ये बोली तमिल है, तेलगु है या फिर कन्नड़. जहाँ तक ऑटो रिक्शा वालो कि बात है सभी को आती है, बस अधिक किराया वसूलने के चक्कर में आपकी भाषा से अनजान बनते हैं. खैर भोले भाले कहीं के रिक्शे वाले नहीं होते हैं.

 उस दिन मेरी भी रात की बस थी चेन्नई के लिए. बस के पिक-अप पॉइंट पे बस आई और सभी लोग चढाने लगे. एक गोरी चमड़ी वाला युवक भी था जो यूरोपियन मूल का लग रहा था. उसके साथ थोडा ज्यादा सामान था तो बस वाले ने कुछ ज्यादा पैसे मागे होगे. इस पर बहस हुने लगी. पहले तो वह नव युवक टूटी फूटी इंग्लिश में बात कर रहा था. इससे मुझे समझ में आया की वो ब्रिटिश मूल का तो नहीं है. किन्तु जब कंडक्टर ने भाषा न समझाने का बहाना बनाया, तो वो हिंदी में बोलने लगा. ये एक सुखद अनुभव था, कि जहाँ हमारे दक्षिण के भाई बंधु हिंदी भाषा का ये कह के तिरस्कार कर देते हैं, कि इससे उनकी क्षेत्रीय भाषा को खतरा है और कहाँ ये युवक जो कि ब्रिटिशर न होते हुए भी हिंदी बोल रहा है. 

 किन्तु बस बाला भी बस वाला था. उसने हिंदी भी न जानने का बहाना बनाया. इस पर वो युवक उसे कन्नड़ में मोलभाव करने लगा. ये देख के मैंने दांतों तले उंगली दबा ली. और हद तो तब हो गई जब उसने ये बोला की 'नान तामिल पेस वेंदुम' मतलब 'मुझे अपनी तमिल का अभ्यास करना पड़ेगा.' मेरी समझ में आ गया कि यूरोपियन व्यापारी किस तरह आपकी भाषा ही सीख कर आपका ही सामान आपको बेच सकते हैं. मेरे भोले भाले हिन्दुस्तानियो भाषा कि लड़ाई में अपना वक्त न जाया करो. सब भाषा अच्छी है, सब भाषाओँ का सम्मान है. माना कि क्षेत्रीय या मात्र भाषा का अपना अलग ही स्थान होता है, किन्तु अधिक से अधिक भाषाएँ सीख कर आप अपने ही ज्ञान का दायरा बढ़ाएंगे. 

 संत कबीर ने क्या अच्छी बात की, ये किसी दक्षिण भारतीय को नहीं पता, इसी तरह संत तिरुवल्लुर ने क्या ज्ञान बाटा ये उत्तर भारतीय नहीं जान पाएंगे. इसलिए अधिक से अधिक भाषाएँ सीखिए. और ये बात उत्तर भारतीयो पर ज्यादा लागू होती हैं, क्योन्कि  सबसे ज्यादा शिकायत करने वाले यही लोग है कि अन्य लोग हिंदी नहीं सीखते. किन्तु एक बात जान लीजिये कि उत्तर भारतीयो का ही अन्य भाषा ज्ञान सबसे ख़राब है. ये मेरा व्यक्तिगत अवलोकन है.  मुझे हमेशा ये खेद रहता है कि अत्यधिक अकादमिक दबावो में रहते हुए, और इंग्लिश में काम चल जाने कि वजह से मै अन्य भाषाएँ नहीं सीख पाया.  

रक्खा क्या है!

छोड़ दे शर्म, शर्म में रक्खा क्या है!
हाँ या ना के उलझनो में रक्खा क्या है.

दर्दे दिल, जा के मुह पे बोल,
बयां आइना में करने में रक्खा क्या है.

नाकामियाबी को कबूल दिल से कर,
शराब के नशे में रक्खा क्या है.

छाती चौड़ी कर, झेल दुनिया के ताने,
घर में मुह छिपा के रक्खा क्या है.

फिर से बीज डाल, पानी दे,
बंजर जमीन कोसने में रक्खा क्या है.

फूल फिजा में बिखरने के लिए है,
दरगाह की चादर बनने में रक्खा क्या है.

नहीं यकीन है, तो खुल के बोल दे,
योँ ही काशी जाने में रक्खा क्या है.

Saturday, January 21, 2012

मुझसे प्यार करती हो

मेरे झूठे बहानो पर, कभी तुम तंज करती हो,
कभी बेवजह बातो के लिए भी रंज करती हो.


गिले शिकवे सभी नाकामियाबी के, मेरे कंधे पे-
सर रख के बयान करती हो,


तभी लगता है की तुम,
मुझसे प्यार करती हो.


फेहरिस्त अपने तकाजो की मुझपे थोप देती हो, 
खाली पर्स के लिए, फिर महगाई को दोष देती हो, 


कयास कर फिर मेरे बेफिक्र चेहरे को, मेरी आंखो में-
अपने सपने घोल देती हो.


मुझे लगता है की तुम,
मुझसे प्यार करती हो.


नये पतझड़, नयी फागुन के मौसम आगे आएंगे,
नये वादे बयां होँगे, पुरानी कसमे भुलायेंगे,


मेरे इस फलसफे को बेतुका सा नाम देकर, जब-
बेतर्क तुम फटकार देती हो.


दिल को यकीं होता है,
मुझसे तुम प्यार करती हो. 


मुझे लगता है……………………………….To you, who else.

Friday, January 20, 2012

मेरी धरती की परिक्रमा: Dharti ki parikrama

Courtesy: Yahoo!
सुबह शून्य मस्तिष्क से साथ जगा. बीच में किसी भी प्रकार की मानवीय भावनाए आये बिना बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. मैंने ये महसूस किया है कि जहाँ आप ये सोचने लगे, कि आखिर हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, क्या मैंने इसी लिए इतनी पढाई की थी, या फिर भारत में मजदूर कानून की विडम्बना, तो फिर आपको बिस्तर साम्यवाद के सम्मोहन कि तरह जकड लेगा, जहाँ ये यह जानते हुए भी कि विकास की प्रक्रिया धीमे पड़ गई है, त्याग नहीं पाते. खैर, सुबह की गरिमा बनाये रखते हुए मैंने अपने आप को अच्छी तरह से धोया, पोछा, और भगवान् के सामने, आज तो कलयुग में सत्य नारायण की व्रत कथा का अध्यात्म सुन के ही रहूँगा, का मनोभाव लिए मस्तक टेक दिए. किन्तु तभी घडी ने न जाने कैसे माया से 8 बजा दिए, और मैंने दिल से उतर कर पेट की सोचते हुए, हमारे नेताओ की तरह देश सेवा का मोह त्यागकर, अपने आपको भगवत-विरक्त कर लिया. 

एक नजर घर की स्थिति पर डाला तो जापान में हाल में आये भूकंप की याद आ गयी और मन भारी हो गया. किसी प्रकार अपने दिल को, पूरी गन्दगी और अव्यवस्था के लिए पत्नी और काम वाली बाई को दोषी ठहराने में कमियाब रहा. हालाकि मुह से कहने कि कुछ हिम्मत नहीं हुई. क्योन्कि इससे एक को आमेरिका कि तरह आपके ऊपर आक्रमण करने का बहाना मिल जाता है, और दूसरी को, सरकार को बहार से समर्थन देते हुए राजनीतिक दल की तरह, छोड़ के चले जाने का मौका. तो मै भी एक जिम्मेवार प्रधानमंत्री की तरह, सरकार चलाने के बोझ के नीचे अपने आप को दबा हुआ मानकर, अपनी 'किंकर्तव्य विमूढ़' स्थिति को उजागर न होते हुए, ये वक्तव्य दे डाला की 'पूरे मंत्रिमंडल पर मै चौबीसो घंटे नजर नहीं रख सकता'. 

नाश्ते के लिए फीका दूध-कार्नफ्लेक्स देखते ही माँ के हाथो के आलू के पराठे याद आ गए. वो इलाहाबाद में नाज-नखरो के साथ सर्दी में 10 बजे तक, 'राहुल जी' की तरह किसी गरीब के घर जाने जैसा, एहसान करते हुए उठाना. फिर मीडिया को एक-एक कौर दिखाते हुए खाना. शायद उन्ही लाड प्यार के कारण 'बाबा रामदेव' की तरह अब जीवन बहुत कठिन लग रहा है. महगाई देखते हुए आज अंगूर या सेब की जगह केले मिले. तो मैंने उसे घर में ही खा लेना उचित समझा, क्योंकि केलो के ऊपर आ रहे तमाम फतहो के बाद ऐसा लगाने लगा है कि, अगर पुरुष भी अपनी रूचि केलो में सार्वजनिक करने लगे, भले ही खाने के लिए, तो उन पर कुछ टीका टिपण्णी या फ़तवा न आ जाये. 

एक सॉफ्टवेर इंजीनियर होने के बाद भी मै भारतीय मूल्यों का पूरा ध्यान रखता हूँ. यदि कोई छींक दे, या बिल्ली रास्ता काट दे, तो ऐसी सब विषम परिस्थितियो में अपनी अपनी यात्रा थोड़ी देर के लिए रोक देता हूँ. आज भी मै जैसे ही निकला 'लिफ्ट की लोबी' में किसी ने छीका. मन तो यही हुआ की 'आजाद' की तरह उसकी खोपड़ी पत्थर से खोल दू, किन्तु किसी माडल की तरह बस उसको तिरछी निगाहो से देख कर रह गया. वापस घर पर जा के, 'करण थापर' की तरह बीवी की तमाम बातो में से प्रश्न ढूंढ कर उत्तर देने से अच्छा, शेअर मार्केट में पैसा लगाने वालो की तरह, भाग्य पर भरोसा करना उचित समझा. 

सुबह बाइक की भी स्थिति मेरे जैसी ही थी. अंगड़ाइयों पर अंगडाइया, किन्तु स्टार्ट होने का नाम नहीं. उसकी हेड-लाईट मेरी तरफ एक याचन की दृष्टि से देख रही थी, कि भाई साहब इस महीने तो सर्विसिंग करा दो, किन्तु मै भी एक चतुर उद्योग पति की तरह बोनस देने की तारीख लगातार बढ़ाये जा रहा था. आज बाइक ने स्तीफा देने की ठान ली, फिर तमाम कोशिशो के बाद भी स्टार्ट नहीं हुयी और, टीम लीड की तरह  खुद ही कोडिंग का जिम्मा उठाते हुए, मै अपने पैरो पर स्टेशन की तरफ रवाना हुआ. वहां गल्ली में कुत्तो को सोया हुआ देख कर ईर्षा होने लगी. रात भर किसी 'पार्टी एनीमल' की तरह हर बाइक और रिक्शे के पीछे दौड़ने वाले, और सुबह 'हैंग ओवर' से जूझते हुए सोते रहते हैं.  

हमारे इलाके के रिक्शे वाले एक दम PHD धारियो की तरह अपनी मनमर्जी का काम करते है, और लाख कोशिशो के बाद भी अपनी ही महारत वाले रस्ते पर चलते हैं चाहे वहां जाने वाला कोई भी न हो. जब भारतीय मध्यक्रम बल्लेबाजो की तरह कोई भी रिक्शा रुकता हुआ नहीं दिखा, तो मन में छींक वाली अवधारणा को आंकड़ो की मजबूती मिल गई. एक रिक्शे वाला रुका और रुक के 2 मिनट तक सोच विचार करके के बाद, वारेन बफेट के निवेशो की तरह इन्तजार करके, लम्बी दूरी वाले यात्री के लिए रुकना उचित समझा.  एक 'फंडिंग' न पा सकने वाले नए उद्यमी 'Enterprenuer' की तरह मै भी गर्दन नीचे करके आगे बढ़ता रहा.  

एक सज्जन को मै स्टेशन तक लिफ्ट दिया करता था. आज किसी और से लिफ्ट ले के मुझे क्रास करते हुए ऐसे मनोभाव दिखा रहे थे कि, जैसे वो कोई कॉलेज जाने वाली छात्रा हो और बाइक का ब्रेक मारने के बाद उनके उभारो की  छुआन से जो आनंद रोज़ मुझे आता था, वो आज किसी और को देने वाले है. मैंने भी ऐसे भाव दिखाए कि मुझे भी किसी मुस्टंडे में कोई रूचि नहीं है, और बेटा कल से लिफ्ट मागना, 'एक्सीलेरेटर' दबा के अपनी धुँआ फेकने वाली बाइक से मुह काला न कर दिया तो कहना. 


जिस प्रकार गणेश भगवान् ने अपने माँ बाप के चारो ओर चक्कर लगाया था, उसी प्रकार, घर से ऑफिस का चक्कर भी मेरे लिए धरती की परिक्रमा है. मुंबई की लोकल, इतनी भीड़ में उनकी सवारी 'चूहे' की तरह नजर आती है, और बहुत बार वैसी ही चलती है. किन्तु जैसे चूहे के सिवाय गणपति किसी और चीज़ पर सवारी नहीं कर सकते, मेरे जैसे तमाम लोग, न चाहते हुए भी रेलवे लाइन की सुबह-सुबह के मन को विचलित कर देने वाले वातावरण से रूबरू होना ही पड़ता है. स्थिति ऐसी है कि, अगर आपको 'मिड-डे' पेपर की अश्लील चित्रों का आनंद उठाना है तो उसमे छपी फालतू की ख़बरें तो पढ़नी ही पड़ेंगी. इन्ही उधेड़ बुन में, कभी लिफ्ट और रिक्शे की आस में इधर उधर देखते हुए, स्टेशन तक पंहुचा. किन्तु इतनी जद्दोजहद जिस ट्रेन के लिए की थी वो ट्रेन, प्रथम प्रेम, की तरह धोका देके जा चुकी थी, और अगली ट्रेन, 'बालिका वधू' में ब्रेक के बाद वाले भाग की तरह, 15 मिनट बाद थी. 

Thursday, January 19, 2012

दंगा: Danga

Courtesy: rebelyouth-magazine.blogspot
आहो से भर उठा वितान,
मीलो में था ये श्मशान.
जहर की बेले, गई थी बोई,
आज दिखाती ये अंजाम,

माँ की गोदे हुयी है सूनी,
सूनी पड़ी है दुल्हन मांग,
'रजिया' का यदि मरा है शौहर,
'राधा' के बच्चे गुमनाम.

नेताओ के इरादो में तुम,
कहाँ ढूँढते हो ईमान,
वोटो की इस राजनीति ने,
इन्हें बना रखा है गुलाम.

फतहो या फिर नारो से क्या,
अलग हो गई है पहचान!
मिटटी की खातिर, मिटटी की,
जान ले रहा है नादान.

भेस बदल कर आते है सब,
ले-ले 'गाँधी-जी' का नाम.
सब ने ही है स्वांग रचा.
'मसीहाओ' से सावधान!

वो कहते 'मेरे है अल्ला',
ये कहते 'मेरे है राम'.
लेकिन लहू तो 'इन्सां' का है,
हिन्दू कहो या मुसलमान.

दिल में ढूंढ़. वही पायेगा,
भूखे को देकर के दान.
गला काट के कैसे मानव!,
ढूंढ़ रहा है तू भगवान्.

कुछ भी सिद्ध नहीं होगा,
ले कर के निर्बल की जान,
झगड़े टंटो से क्या 'मूरख',
हो जाते हैं प्रश्न निधान?

मिल जुल कर करना होगा,
पड़े प्रगति के काम तमाम.
पहले से ही भारत पिछड़ा,
और करो मत तुम बदनाम.

यही बनाओ राम राज्य अब,
यहीं तरक्की के अभियान,
आजादी तुमको है पूरी,
'आज बचा लो ये गुलफाम'.

Wednesday, January 18, 2012

सीधा लड़का: Seedha Ladaka

मेरे बचपन के मित्र के बड़े भैया पढ़ने में बड़े तेज़ थे, और पूरे मोहल्ले में अपनी आज्ञाकारिता और गंभीरता के लिए प्रसिद्ध थे. सभी माएं अपने बच्चो से कहती थी की कितना 'सीधा लड़का' है. माँ बाप की हर बात मानता है. वो हम लोगो से करीब 5 साल बड़े थे तो हमारे लिए उनका व्यक्तित्व एक मिसाल था, और जब भी हमारी बदमाशियो के कारण खिचाई होती थी तो उनका उदहारण सामने जरूर लाया जाता था. मेधावी तो थे ही, एक बार में ही रूरकी विश्वविद्यालय में इन्जिनेअरिंग में दाखिला मिल गया. वहा से पास होते ही नौकरी भी लग गई.

किन्तु उनके पिताजी को IAS से बड़ा ही सम्मोहन था और वो अपने लडके को किसी जिले का मालिक देखन चाहते थे. इसलिए उसे नौकरी से वापस बुला लिया और IAS का भी इम्तिहान देने को कहा. भैया इतने आज्ञाकारी थे कि नौकरी छोड़ के आ गए. उन्होंने फिर अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए  IAS बन गए. अब क्या था! उनके पिताजी जी कि ख़ुशी का ठिकाना न था. हर जगह मिठाई बाटते फिरे. आखिर IAS का दहेज़ भी तो हमारे समाज में सबसे ज्यादा होता है. 


दिन बीतते गए और तरह तरह के संपन्न रिश्ते आते रहे. किन्तु हमारे भैया किसी न किसी तरह से उसे मना कर देते थे. एक दिन मेरे मित्र के पिताजी सुबह सुबह ही चिल्ला रहे थे. थोड़ी देर बाद लोगो को पता चला की भैया अपनी ट्रेनिंग पूरी कर के आ गए है, और साथ में बहू और 3 साल का एक बच्चा भी लाये है. 
जैसे तैसे चाचा जी को समझाया गया. बहू अच्छी थी उसने घर में सबको खुश रक्खा.


अब जब कभी भी हमारे मोहल्ले में कोई प्रेम प्रलाप होता है तो घर वाले उसका विरोध नहीं करते. बल्कि भैया वाली बात की उलाहना देते हैं और कहते हैं की जहाँ आप लोग की मर्जी शादी कर लेना मगर इस तरह अचानक से बहू और बच्चा ला के 'हार्ट अटैक' मत देना. 
बहुत संपन्न होने के बाद भी चाचा जी को दहेज़ न मिल पाने की खलिश आज भी कभी कभी सताती है.

मेरी विरार लोकल से यात्रा: Journey on Virar Local

अभी हाल में एक फिल्म आई थी, 'वंस अपान ए टाइम इन मुंबई'. इसमे एक धाँसू डायलोग था 'हिम्मत बताने की नहीं दिखने की चीज़ होती है.' मै जब भी दादर से विरार ट्रेन में चढ़ने का विचार करता हूँ, न चाहते हुए भी अपने आपको 'इमरान हाश्मी' के दर्जे की बहादुरी के लिए तैयार करना पड़ता है. आज फिर मै वीरता के कई कीर्तिमान स्थापित करते हुए, अपनी भीड़ से डरने की कमजोरी से उभरते हुए, विरार लोकल पर चढ़ा. कमर, कूल्हो, छाती, मुह, सब जगह मानवीय दबावो को सहता हुआ, घिसटते, पिसते, एक कोने में जा के दुबक गया.

Courtesy: Frontlineonnet.com 

वही पर कुछ लोग मृत्यु के पश्चात के जीवन की स्थिति पर चर्चा कर रहे थे. मै अपनी जीर्ण शीर्ण अवस्था में उनकी चर्चा में ऐसा विह्वल हो गया की अपने जिन्दा होने का एहसास तब पता चला जब ट्रेन बांद्रा पहुचने वाली थी, और नाले की तीक्ष्ण गंध, जिसे महिम वासी 'मीठी नदी' कह के बुलाते हैं, नथुनो को भेदती हुयी 'कापचिनो काफी' जैसा झटका नहीं दे दी.

जागने के बाद मैंने ध्यान दिया की काफी सारे लोग आज कल कान में चौबीसो घंटे हेडफोन लगाये रहते हैं, और सर को तरह तरह से मटकाते रहते हैं. मुझे तो ऐसा लगता है की वास्तविक संकट को नकारने के लिए जैसे शुतुरमुर्ग अपना सर जमीन में डाल देता है, वैसे ही ये लोग आज कल के 'श्रद्धा और विश्वास' से परिपूर्ण गाने सुनते रहते हैं. कुछ लोग घडी घडी फेसबुक पर अपनी स्थिति का अपडेट डालते रहते हैं, मानो धरती की कक्षा छोड़ के किसी उपग्रह की परिधि में जा रहे हो, और 'नासा' को ये लगातार बता रहे हो कि अब ओजोन की परत जा चुकी है, और मेरा अक्षांश और देशांतर फलाना-फलाना है.

बांद्रा से एक सज्जन 'आज भारत को आजाद कर देंगे' के मनोभाव लेके चढ़े और सबको धकियाने लगे, किन्तु जनता जनार्दन ने अपना भारी मत गलियोँ और जवाबी धक्के के रूप में देते हुए, उन्हें भारतीय बल्लेबाजो की तरह 'बैक फुट' पर ला दिया. इसके बाद तो उन्होने अपना शरीर नव विवाहिता की तरह जनता को समर्पित कर दिया.

परन्तु कुछ लोग हमारे भारतीय नेताओं की तरह, धैर्य दिखाते हुए, बहलाते फुसलाते हुए, अपनी उम्र का हवाला देते हुए आगे बढ़ते जाते हैं, फिर तीन की सीट पर चौथे स्थान पर लटक जाते हैं. उनकी स्थिति उस त्रिशंकु की तरह है, जिसे खड़े रहने में भी गुरेज है और चूँकि पूरी सीट मिली नहीं है तो बाकि लोगो से इर्षा भी है. ऐसे लोग और कुछ खड़े लोगो के मन में लगातार समाजवाद और साम्यवाद पनपता रहता है और सारी स्थिति का जिम्मेवार ब्रह्मण या मनु वादी सोच को ठहरा कर कर अति आबादी में अपने सहयोग को झुठलाना चाहते हैं. किन्तु सीट पा चुके लोग भी किसी उद्योगपति की तरह अपने खर्च किये हुए पैसे हो पूरी तरह से निचोड़ लेना चाहते हैं, और अपने स्टेशन तक पूरी तरह से 'सांसद फंड' की तरह सीट का इस्तेमाल अपनी मर्जी के अनुसार करके किसी परिचित को दे कर चले जाते हैं.

इतने में किसी ने अपने जेब में हाथ डाला और चिल्लाया मेरा मोबाइल यहीं कहीं गिर गया है. फिर अपने आप को 'पायरेट्स आफ कैरेबियन' समझते हुए पूरे डब्बे रूपी समुद्र को खंगाल डाला. तभी किसी ने अन्ना हजारे कि तरह उसे अपने गिरेबान में फिर से झांकने कि सलाह दी, और हमारी सरकार कि गलतियो कि तरह ही मोबाइल भी उसके बैग में मिल गया. फिर किसी सरकारी प्रवक्ता जैसे दांत निपोरते हुए, इससे पहले कि कोई अपने सब्र का बांध तोड़ दे और चप्पले रसीद करे, एक निर्लज्ज सा अर्थहीन 'सारी' बोल दिया.

मेरा भी स्टेशन आया, और मै लखनवी नजाकत के साथ उतरने ही वाला था कि, अमेरिका जैसे 'ग्लोबल वार्मिग' को नकारता है, लोगो को मेरा अस्तित्व दिखाई ही नहीं पड़ा, मानो मै कोई 'एक कोशकीय' जीव हूँ. लोगो ने मुझे फिर से ला के उसी जगह खड़ा कर दिया. मेरी स्थिति डिम्ब से मिलन को व्याकुल उस शुक्राणु कि तरह थी जिसे 'कंडोम' जैसी एक पारदर्शी झिल्ली से रोक लिया हो.

तमाम कोशिशो के बाद भी मै इलाहाबाद विश्वविध्यालय के छात्रो कि तरह आईएस परीक्षा निकालने में नाकाम रहा. तब किसी सहृदय व्यक्ति ने सिफारिश के जरिये, मुझे बाहर फेकने का ख़ुफ़िया प्लान बनाया. अगले स्टेशन पर उन लोगो ने मुझे बाहर फेका और फिर मेरे बैग को, जैसे हमने पहले अंग्रेजो को बाहर निकला और फिर 'बेटन दंपत्ति' को खिला पिला के तृप्त करके. ट्रेन से फेके जाने के बाद मै भी ब्रिटिश राज कि तरह अपने पैरो पर खड़ा नहीं रह पाया और धडाम से गिरा. लोगो ने एक छड मेरी तरफ, आस्था चैनल कि तरह डाला, फिर 'बिग बॉस' सीरियल कि तरह महिला कोच की तरफ देखने लगे.

Tuesday, January 17, 2012

चिर यौवन! : Chir Yauvan

Courtesy: Quiker
मै खिली हूँ, मेरा यौवन,
मै हसू तो हसे उपवन,
दंभ है मुझे निज गेह से,
नयन पल भर न हटता,
मेरा नायक देह से.

पर पूछ बैठा एक दिन,
"हे प्रिये!
तन की गमक, सींचता जिसको है यौवन,
क्या तोड़ सकता है समय बंधन "?

झुर्रियां, लाली न रह जाएगी अधर पर,
गेसुओं का रंग मेहदी उड़ न जायेगा?

सबको लेके जाता है समय उस हाल तक,
कैसे छोड़ेगा तुझे चिर काल तक.

सोच कर योँ बह पड़ा,
निज बाधा अवसाद,
दंभ टूटा,
रूप यौवन का क्षडिक उन्माद!

सु-विचारो से यदि-
भरा नहीं ये मस्तिष्क,
तो व्यर्थ है काया परिष्कृत.

वर्ण गोरा जो मिला तेरे ह्रदय को,
ढक सकेगी,
तभी तेरी श्याम काया.
नूर जो तू ढूंढ़ता यो फिर रहा,
है तेरे अन्दर,
कि बाहर मात्र माया.

Sunday, January 15, 2012

रेलवे पटरी पर संडास है: Railway patari par

रेलवे पटरी पर संडास है,
और जिंदगी झकास है.

रेल में बम फूटा, गोलियां चली,
पर यहाँ की 'लाइफ' बिंदास है.

हाथ में मोबाइल, कान में हेडफ़ोन,
समझता अपने को ख़ास है.

घडी घडी स्कोर देखते हैं,
सचिन की सेंचुरी पास है.

हर जगह बहू सताई जा रही है,
हर 'सीरियल' में सास है.

मरना, खपना, या 'एलियन',
मीडिया का च्वनप्राश है!

खुद खाए या बच्चो को खिलाये,
'बत्तीस रुपये की घास है.'

इस साल भी बारिश अच्छी करने का,
मौसम विभाग का प्रयास है.

जेल में रहे या संसद में,
दोनो ही अपना आवास है!

Saturday, January 14, 2012

मै भी लड़ना चाहती हूँ! mai bhi ladala chahti hoon

मै भी लड़ना चाहती हूँ! मुझे लड़ने दो!

हार का मै स्वाद चखना चाहती हूँ.
जीत का अभ्यास करना चाहती हूँ.

प्रेयसी बन बन के हो गई हूँ  बोर!

मै नए किरदार बनना चाहती हूँ. 
मै भी जिम्मेदार बनना चाहती हूँ.

सीता-गीता मेरे अब नाम मत रखो!


धनुष का मै तीर बनाना चाहती हूँ,
गरल पीकर रूद्र बनना चाहती हूँ.

अपने पास ही रखो हमदर्दी अपनी!


खड़े होकर सफ़र करना चाहती हूँ,
'बसो' का मै ड्राइवर बनना चाहती हूँ.

मै भी लड़ना चाहती हूँ.


मेरी राह के हर एक दीपक बुझा दो!

बिजली के खम्भे बनना चाहती हूँ. 
स्वयं जलकर भस्म बनना चाहती हूँ.

नर्स या फिर शिक्षिका नहीं केवल! 


कोयले की खान खोदना चाहती हूँ,
ओलम्पिक से पदक लाना चाहती हूँ.

बस! अब और नहीं चाहिए आरक्षण! 


मै तो बस एक हक चाहती हूँ,
भ्रूड में मै नहीं मरना चाहती हूँ.

लड़की हूँ तो क्या हुआ! मै भी लड़ना चाहती हूँ.

Friday, January 13, 2012

तुम्हारी साफगोई पर: Tumhari Safgoi Par

तुम्हारी साफगोई पर जो निसार हो गए,
आज शाम को सरे वो 'शराब' हो गए.

उनके एहसान गिनो तो कुफ्र है,
जब मुह से सुना, तो हिसाब हो गए.

हिना का रंग तो फूस जैसा ही है,
तुम्हारे हाथ जब चढ़े तो हिजाब हो गए.

आज भी फ़ासी नहीं दिया उसको!
हुक्मरान ही 'कसाब' हो गए.

किसी का तजुर्बा पन्नो पे छितरा गया,
जिल्द के साथ वो किताब हो गए.

जो देखा है खुली आँखों से,
दरअसल वही ख़्वाब हो गए.

अपनी रोटी खिला दी भूखे को,
आज तुम माहताब हो गए.

लाइफ इन लोकल - अप ट्रेन: Life in Local - Up Train

क्या ये सुबह नई शुरुआत है,
या फिर कल का बस आज से मिलाप है.
आभार: गूगल 


मुह और आँखे लाल है.
सूरज के लिए भी अभी प्रात है.


निकले हैं किसी उधेड़ बुन में.
पेट की चिंता भी साथ है.


सबको बराबर नहीं मिलता,
वक्त में भी नहीं साम्यवाद है


नीली पीली बत्तियों वाले स्टेशन.
पुराने और नए चेहरोँ की पांत है.

आठ बजे कुछ के लिए भोर या दोपहर,
कुछ के लिए रात है.


प्लेटफोर्म कई सरे इन्सानो और
कुछ श्वानो की खाट है.


चिल्लाते, धकियाते, थूकते यहाँ वहां,
भारतीयता यहाँ पर आजाद है.


सिर्फ संघर्ष है, सीट का,
बड़ा ही धर्म-निरपेक्ष प्रयास है.


कुछ को सीट मिली, बाकी -
के मन में समाजवाद है.


सिग्नल के इंतज़ार में ऊब गई-
जनता बदहवास है, बदमिजाज है.


कुलबुलाती भुनभुनाती भीड़,
खाती समोसा, प्रदूषण और अखबार है.


बच बच के चलती ट्रेन, झुग्गी-झोपड़ियो से,
महानगर आबाद है.


घिसटती हुई, रेंगती हुई, भागती हुई,
हर ट्रेन का अपना भाग्य है.


किसी का स्टेशन आ गया,
कोई जोह रहा वाट है.

मूंगफली: Peanutes

मेरा एक छोटा दोस्त है माहिम में. उसका घर धारावी में है, जो कि महिम से लगा हुआ एक बहुत बड़ा 'स्लम' है. ये वही जगह है जिसे हम बड़ी शान से कहते हैं कि एशिया का सबसे बड़ा 'स्लम' है. मेरा दोस्त आठवी क्लास में पढता है, और पिछले दो या तीन साल से धारावी से माहिम आता है. उसका स्कूल और मेरा ऑफिस लगा हुआ है, तो कभी कभी मिलते मिलते दोस्ती हो गई.

आज मुझे काफी दिन बाद मिला. उसके हाथ में छिलके वाली भुनी मूगफली का एक पैकेट था. उसने मेरी तरफ बढाया पर मैंने नहीं लिया सोचा की इतने छोटे पैकेट में से मैंने ले लिया तो वो क्या खायेगा. पर एक बात अजीब लगी. वो मूंगफली छिलके सहित खा रहा था. मैंने कहा बेटा पेट ख़राब हो जायेगा, छिलके सहित क्यों खा रहे हो?

वो बोला - "अंकल! मुझे आज से दो साल पहले भी 5 रुपये स्कूल से लौटते वक्त कुछ खाने के लिए मिलते थे, और आज भी 5 रुपये. पहले इतनी मूंगफली आ जाती थी कि मै छिलके निकाल के खाते हुए घर तक पहुच जाता था. मगर अब आधे रस्ते में ही ख़तम हो जाती है. हाँ पर अगर मै छिलके सहित खाऊं तो पूरे रस्ते चलती है".

इस उत्तर के बाद मै कुछ बोल नहीं पाया. वो तो निकल गया और मै ये सोच रहा था कि आज 5 रुपये में एक बच्चे को खाने भर को मूंगफली नहीं मिलती है, और हमारे नेता और सरकारी बाबू लोग गरीबी की रेखा 32 रुपये कर दिए हैं.

Thursday, January 12, 2012

माँ का प्यार: Maa Ka pyar

माँ मुझे बचपन में मेरी उम्र के हिसाब से कुछ ज्यादा ही रोटियां दिया करती थीं. इंटरवल में सारे बच्चे जल्दी जल्दी खाना ख़त्म करके खेलने चले जाते थे. और मै अपना खाना ख़त्म नहीं कर पता था. तो डब्बे में हमेशा ही कुछ न कुछ बच जाता था, और मुझे रोज़ डांट पड़ती थी. मेरी बहन भी घर आ के शिकायत करती थी कि उसे छोड़ के इंटरवल में मै खेलने भाग जाता हूँ.

एक दिन मेरी बहन मेरे साथ स्कूल नहीं गई. मै ख़ुशी ख़ुशी घर आया और माँ को बताया की मैंने आज पूरा खाना खाया है. माँ को यकीन नहीं हुआ, उनहोने डब्बा खोला और मुझे दो झापड़ रसीद कर दिए.

फिर माँ बोली की आज तुमने अपना पूरा खाना फेक दिया इसलिए मार पड़ी है. मुझे मालूम है की मै तुम्हे ज्यादा खाना देती हूँ और तुम छोड़ोगे ही. लेकिन अगर 4 रोटी में से 2 भी खा ली तो कुछ तो तुम्हारे पेट में जायेगा.
ये माँ का प्यार था.

आज भी जब मै ये बात याद करता हूँ तो मेरी आँखे भर आती हैं, और सोचता हूँ की क्या मै भी कभी किसी को इतना प्यार कर पाउँगा.

हमको भी लूटा गया: Hamko bhi loota gaya

हमको भी लूटा गया.
ये वादा भी झूठा गया.

 
"चोट तो दिल पे लगी थी,
खून पर आँख से चूता गया."

 
वो मानाने कब आये?
हम-ही से न रूठा गया.

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कहीं दारू बंटा कहीं टीवी,
ये इलेक्शन भी छूछा गया. (छूछा: खाली, empty)


खामोश रहे, आँख पर पट्टी बांधे,
एक ऐसा हुक्मरान ढूंढा गया.

 
आंकड़े तरक्की बताते है, फिर
क्यो, हमारा गाँव सूखा गया?

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नया साल मुबारक कैसे हो?
आज भी निवाला रूखा गया.


उसका हक कोई और ले गया,
दूसरों के कंधे पे न कूदा गया.

 
तुम्हारी कीमत क्या है,
जिसने सर उठाया, पूंछा गया.

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वो भी सन्यासी हो गया,
घर चलाने का बूता गया.

 
जिसकी कोठी है  ऊंची,
मानो न मानो! वही पूजा गया.

 
"खुदा" ढूंढते रहे ता-उम्र, कि-
उनके दर अभी से एक भूखा गया.

लोग एअरपोर्ट जा रहे थे: Log Airport Ja rahe the

लोग एअरपोर्ट जा रहे थे और वो घास काट रही थी,
गोधुली बेला थी, "वीकेंड" की शाम थी.

जीर्ण शीर्ण सी धोती से सर को ढकी थी 
शेष जो था तन पे लिपटाये थी.
सोचने लगा कि घर कहाँ है उसका?

दूर तक कोई  झोपड़ी न थी.


तभी एक आदम सा कद दिखा,
साथ में एक कुत्ते की परछाई भी थी.
कभी मालिक आगे तो कभी आदमी आगे,
लगा कि साया व्यक्ति पर हावी थी.

दो घडी में एक कोलाहल सा हुआ,
लगा की कुछ कहासुनी हुई.

उस औरत के हाथ में "बर्गर" था-
और आदमी कि चिल्लाये ही जा रहा -
"इस औरत ने कुत्ते की रोटी चोरी की."

पर वो ढिठाई से एकदम अड़ी रही, 
एक हाथ में "आधा बर्गर का टुकड़ा",
एक हाथ में हसिया ली हुई.

इसी तमाशे में मेरी "कैब" आ गई, 
और मै भी एअरपोर्ट के लिए निकल पड़ा.

हो सबकी पूरी आशा: Ho sabki poori ashaa

हो सबकी पूरी आशा, नव वर्ष कि ये है अभिलाषा
हर पेट में हो रोटी,
हर तन पर हो धोती,
चिंता-तृष्णा हो छोटी,
हो जाये शांत पिपासा, नव वर्ष कि ये है अभिलाषा

कुछ आम का पेड़ लगायें
कुछ दीन-बाल को पढ़ायें
हम अपना कर्त्तव्य करें,
हक बने न मात्र दिलासा, नव वर्ष कि ये है अभिलाषा

खादी भी उजली हो जाये,
संसद का रुके तमाशा
निर्धन को संपन्न करें,
न कि बदले परिभाषा, नव वर्ष कि ये है अभिलाषा

बाँट सके न भारत को -
फिर जाति धर्म या भाषा,
मनुज मनुज की तरह मिले
छटे दिलों से कुहासा, नव वर्ष कि ये है अभिलाषा

हो सबकी पूरी आशा, नव वर्ष कि ये है अभिलाषा.

हमेशा सजा रहता है: Hamesha saja rahta hai

हमेशा सजा रहता है, अँधेरा दूर रहता है,
ये दिल काफ़िर का है इसमे खुदा नहीं रहता है.

मंदिर या मस्जिद जाने का कहाँ मौका है,
बहुत सुबह ही रोज़ी रोटी को निकलता है

उसे तो तृप्त करना उसे प्यासे से मतलब है,
कहाँ गंगा को चिंता है कि मिन्नत कौन करता है

ना माथे पे है टीका सर पे ना टोपी लगता है,
वो गिरते को उठता है, खुद को इंसान कहता है

तरक्की में बहुत से मकबरे या "पार्क" बनते हैं,
प्लान "हैण्ड पम्पो" का फाइलों में ही सड़ता है.

फलाना "ब्रिज" और फलाना "रोड" बनती है,
बनाने वाला का घर फिर वही फुटपाथ बनता है.

ना इसके पर हैं, ना हि कोई दाँत, हमारा "राष्ट्र" -
इसको कभी "पी-एम्" कभी "लोकपाल" कहता है.

झंझावात विचारो का: Jhanjhavaat Vicharo ka

झंझावात विचारो का, उद्विग्न हो उठा मेरा मन,
जब देखा आज सड़क पर सोते, ठंडी में वो नंगा तन.

बिखरी है समृधि-सरसता, दिखता है बस चैन अमन,
तेरा चेहरा भूल गए हैं टी-वी के ये विज्ञापन.

नई-नई परिभाषाएं हैं, नई दृष्टि है, नए वचन.
बत्तीस रुपये से ऊपर वाले को कहते "कॉमन मैन".

थके हुए हैं, भूखे हैं, हताश भी है जन-गन-मन
सत्ता के मद में खादी को, कौन दिखायेगा दर्पण.

देखें कितने दिन चलते हैं, नारे वादे और दमन.
काठ की हाड़ी रोक सकेगी, कितने दिन तक परिवर्तन

मेरे दिल में आके: Mere dil me aake

मेरे दिल में आके घर बनाते रहना,
तिनको से सही, पर इसको सजाते रहना.

शाम को थका हुआ सा जब घर आऊं,
तुम यो ही आंखो से पिलाते रहना.

जब भी लगे जिंदगी से हमने क्या पाया
तुम हमको अपनी बाँहो में संभाले रखना.

कोई वादे करे, या कसमे वफ़ा की खाए
यकीन करना, पर शर्त है, मुस्काते रहना.

काबा में न मिले वो, जब काशी में ना मिले
अपनी रोटी, किसी भूखे को खिला के मिलना

जिंदगी है एक फासला: Jindagi hai ek faasalaa

जिंदगी है एक फासला मिटाते रहना,
दोस्त बन जायेंगे हाथ बढ़ाते रहना

हर सुबह मुस्काते मिल जायेंगे,
आप यो ही ख्वाबो में आते रहना.

हर-सूं तन्हाई, खुशियो में खलिश लगे,
कभी कभी अपने गाँव भी जाते रहना.

लोग पूछेंगे दुनिया को क्या दिया तुमने,
कुछ आम-अमरुद के पेड़ लगते रहना.

गद्दो में, गलीचो में नीद न आये!
माँ की लोरियां गुनगुनाते रहना.

जो बिकता है: Jo Bikata Hai

जो बिकता है वही लिखना पड़ता है,
शायर को भी घर चलाना पड़ता है.


गला कटवाने का बड़ा शौक है,
सबके सामने सच बयान करता है.

कब तक यकीन रकखेगी क़ौम,
पैसठ साल से वादे करता रहता है.


काफ़िर और गद्दार बुलाया जाता है,
हाकिम से जब भी सवाल करता है.

डूबा रहता है नशे मे हरदम,
हक़ीकत मे इन्सा से पाला पड़ता है.


यहाँ किसी को भी भूखा नही मिलता,
दरगाह , या फिर शिवाला जाना पड़ता है.

शिकायत पत्र से काम नही चलता,
जनता को हाथ उठना पड़ता है.


गुसलखानो के लिए फंड नही है,
शहर मे पार्को को सजाना पड़ता है.

ना कोई 'एच. आर.' है, ना कोई पैकेज,
'वेकेंड' पर भी घास काटना पड़ता है.


कैसे कैसे समझौते करने पड़ते हैं!
कोई जब घर बनाना चाहता है.


'ए राकेश' ये किनारा है, मोतिओ-
के लिए डूब जाना पड़ता है.

Tuesday, January 10, 2012

कबूतर-खाना Kabootar-Khana

बोरीवली की एक और नीरस सुबह थी. जैसे तैसे भगवान् जो कोसते हुए मै ऑफिस के लिए तैयार हुआ. बर्तन माजने वाला एक दिन की छुट्टी ले के चार दिन से लापता था. किसी प्रकार अपने शब्दो को गाली की सीमा में जाने से रोकते हुए घर से बाहर निकला. मेरे घर के बाहर ही कबूतरो का जमवाड़ा लग जाता है. कुछ धार्मिक प्रकृति के लोग सुबह सुबह कबूतरो को चना खिला के दिन भर के किये पापो से मुक्ति पाना चाहते हैं. मै ये विश्वास करता हूँ की रात में कोई पाप न किया हो. वैसे बहुत ही सभ्य समाज है, तो इस बात की संभावना बहुत कम है. वहीँ पास में ही फुटपाथ पर एक चने की बोरी ले कर एक औरत बैठी रहती है. जो लोगो को चने बेच कर कुछ पैसे कमाती है.

पता नहीं कबूतरो की मुझसे क्या दोस्ती है की जैसे हि मै वहां से गुजरता हूँ सब के सब फड फडा के उड़ने लगते हैं, उनके शरीर की सारी गन्दगी उड़ने लगती है और बहुत तेज़ बदबू आती है. मुझे तो लगता है की अगर कभी बोरीवली में बर्ड फ्लू आया तो मुर्गे खाने की वजह से नहीं बल्कि कबूतर पालने की वजह से. बोरीवली स्टेशन जाने को रिक्शा भी वही से मिलता है. तो चाहे न चाहे वहां खड़ा ही होना पड़ता है जब तक कि किसी स-ह्रदय रिक्शा वाले को हम पे तरस न आ जाये. तो इस तरहसे मेरी सुबह के दो -चार पल शांति के प्रतीको के साथ गुजरता है. किन्तु वहां शांति बस प्रतीक के ही रूप में रहती है. इस स्थान और बोरीवली स्टेशन में सिर्फ कबूतर और आदमियो का ही फर्क है.

तो उस सुबह भी मै रिक्शा रूपी ब्रह्म के इंतज़ार में खड़ा था. कबूतरो से बचते बचाते, मेरी निगाह सड़क के दूसरी तरफ गई. वहां तीन चार छोटे बच्चे जमीन पे खेल रहे थे, लोट पोट रहे थे. उनकी माएं वहां नहीं थी. उनके भी हाथो में चने थे और वैसे ही दिख रहे थे जैसे कबूतरो को खाने के लिए दिए गए थे. हो सकता है किसी सज्जन व्यक्ति ने इन्हें भी दाना डाल दिया हो. तभी कबूतरो के झुण्ड के पास एक शोर सुनाई पड़ा. एक आदमी दोनो औरतो से झगड़ रहा था, या यो कह ले की उस जगह से भगा रहा था. मैंने थोडा ध्यान दिया तो पता चला कि वो औरतें जमीन पर गिरे हुए चने बीन रही थी और ये बात उसे असह्य थी कि कबूतरो का खाना कोई और खा ले.

इतने में मुझे भी एक स-ह्रदय रिक्शा वाला मिल गया और स्टेशन की तरफ चल पड़ा.

Monday, January 09, 2012

अंधेर नगरी के हुजूर लापता: Andher Nagari Ke Huhoor Lapata

अंधेर नगरी के हुजूर लापता.
उम्मीद लापता है, रसूल लापता.

चलती हैं चप्पले दीवान-ओ-ख़ास में,
हमारे नुमाइंदो के शऊर लापता.

फासिद-ए-इल्जाम से बाइज्जत बरी हैं, (फासिद: corrupt)
उनकी शख्शियत का हर सुबूत लापता.

लाये हैं आंकड़े पिछले पांच सालोँ के,
हाकिम की निगाह से मजलूम लापता.

मुद्दा बड़ा है! छाप गया, हर अखबार में,
'आम के पेड़ से अमरुद लापता'.

इतने पहरो में भी क़त्ल किये जाते हैं,
पडोसी के समझौतो से सुकून लापता.

बच्चो के चक्कर में फनाह हो गए,
यहाँ के शायरो के उसूल लापता.

चलेगी कौम क्योँ सालार के कहे,
जमीर का पता नहीं, वजूद लापता.

दिखती नहीं रौनक, हुकूमत बदल गई,
करते थे जो तारीफ बेफिजूल लापता.

निन्यानवे के फेर में दौड़ता सुबह-शाम,
जवानी के सारे फितूर लापता.

मिलता कहाँ है 'वो', हमको नहीं पता,
बन्दों के दिल से 'मालिक', जरूर लापता.

अमावस है और चाँद पूरा है: Amaavas hai aur chand poora hai.

आये हैं, मेरा दर, याद पूरा है,
अमावस है और चाँद पूरा है.

जुल्फों से ढलकती हुई कुछ बूदें है,
ओस के बीच अंगार पूरा है.

हया से पलकें झुकी जाती है,
सवाल पूरा है, जवाब पूरा है.

बड़ी भोली शकल बनाये हैं,
क़त्ल करने का विचार पूरा है.

माथे पे एक बिंदी है बस,
दिल उजला है, श्रृंगार पूरा है.

कैसे न यकीन रक्खे उसपे,
किया हर एक वादा पूरा है.