Friday, March 30, 2012

तरही मुशायरा २१ के हेतु

अकड़ में नरमी, अदा में गरमी, कभी हमारे सजन में आये, 
वफ़ा के सच्चे, जबाँ के जलवे, कभी किसी आचरन में आये.
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समा बंधा है, सुकूँ बहुत है, मगर वो वादा जहन में आये,
चलो लगायें फिर एक नश्तर, कि दर्द पिछला सहन में आये.
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उतार कोकुन, निकाल चश्मा, वो मेरे वातावरण में आये,
मली फिजा है, हमारे 'रु' में, हवा से सिहरन बदन में आये.
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ये नब्ज डूबी ही जा रही थी, कफ़न से ढकने, वो आये मुझको,
मेरे तबस्सुम का राज ये है, 'किसी तरह संवरण में आये'.
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यहाँ मचलती जो भूख हर दिन, नहीं है चर्चा किसी अधर पर,
चहकते प्यादे, सवरते रस्ते, वो आज-कल आचमन में आये.
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नहीं मयस्सर है साफ़ पोखर, हमें पिलाते हैं नारे-वादे,
मिला न पानी जो लान को तो, वो मुद्दतो में शिकन में आये,
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फिजां में घोले, हवा सियासी, वो लूटने क्यों अमन को आया?
जिया में कुरसी हिलोर खाती, कि 'राम' तो बस कथन में आये.
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नहीं कदर है, वो बात बेजा, लबों पे आये, जो वक्त पहले,
विचार जब निज चरित में आये, कथन तभी अनुकरण में आये.
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चबाये सूखी रोटी है अब वो, जमीर जिसका घुटन में आये.
अना की चादर उतार फेंके, मुहब्बतों के चलन में आये.
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भली सुनाये, प्रशस्ति पाए, उसी को दौलत उसी को शुहरत,
कवी जो बागी है आम जन का, बिना दवाई कफ़न में आये.
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फटेगी छाती, बहेगा लावा भरा है जनता के मन बदन में,
नहीं गयी है ये आह बेजा, शगुन के आंसू नयन में आये.
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गरीब बस्ती है छान मारी, जुगत लगाई 'मटेरियल' की,
मरा है 'बुधया' मुआवजे को, "शहर से कुत्ते" रुदन में आये.
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जबाँ हिलाई, कि ऐ खुदा हम, तड़प के भूखो लगे हैं मरने ,
लगा ये तेवर बगावती, वो सशस्त्र बल से दमन में आये.
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जमी तलाशी, कुआं बनाया, सुखन से पाये, तो चार घूँटें,
हमें सिखाएं, हुनर वो क्या है, पिता के जो अनुसरण में आये
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जमीर को लग गयी बिमारी, वो मार आये हैं भ्रूड कन्या,
बड़े सुशिक्षित जनाबे आली, परम्परा के वहन में आये.
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रसूल वालो कभी तो आओ, सड़क पे मेरे घरौंदे में भी,
दवा यहाँ है 'देशी गरल' की, जलन से तडपन सहन में आये.
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करे तपस्या अनेक वाइज, समझ न पायें कि राज क्या है,
महज खिला के गरीब को वो, कैसे दिवान-ए-सुखन में आये.

Monday, March 26, 2012

हमको बहुत लूटा गया

हमको बहुत लूटा गया,
वादा तेरा झूठा गया.

झगड़ा रहीम-औ-राम का,
पर, जान से चूजा गया.

दर पर, मुकम्मल उनके था,
बाहर गया, टूटा गया.

भारी कटौती खर्चो में,
मठ को बजट पूरा गया ,

मजलूम बन जाता खबर,
गर ऐड में ठूँसा गया. (ऐड = प्रचार/विज्ञापन/Advertisement)

उत्तम प्रगति के आंकड़े,
बस गाँव में, सूखा गया.

वादा सियासत का वही,
पर क्या अलग बूझा गया!!

है चोर, पर साबित नहीं,
दरसल, वही पूजा गया.

माझी, सयाना वो मगर,
मन से नहीं जूझा, गया.

वो कब मनाने आये थे?
हम से नहीं, रूठा गया.

चोटें तो दिल पर ही लगी,
खूं आँख से चूता गया.

जो चुप रहे, ढक आँख ले,
राजा ऐसा, ढूंढा गया.

पैसों से या फिर डंडों से,
सर जो उठा, सूता गया.

दारु बँटा करती यहाँ!
यह वोट भी, ठूँठा गया. (ठूँठ = NULL/VOID)

संन्यास ले, बैठा कहीं,
घर जाने का, बूता गया.

नव वर्ष ‘मंगल’ कैसे हो?
दिन आज भी रूखा गया.

खोजा “खुदा” वो ता-उमर!
आगे से इक भूखा गया.

पीछे रहा है ‘बस्तिवी’!
सर पर नहीं कूदा गया.

Wednesday, March 21, 2012

मैखाना है

ऐसा लगता है की मेरा यों अब गुजरा जमाना है,
बेगाना रुख किये 'साकी'! यहाँ तेरा मैखाना है.

फकीरों को कहाँ यारो कभी मिलता ठिकाना है,
बना था आशियाना, आज जो बिसरा मैखाना है!

कभी अपना बना ले पर कभी बेदर्द ठुकरा दे,
सयाना जाम साकी! और आवारा मैखाना है.

तेरी हर एक हंसी पर ही चहक कर के मचल जाना.
हमेशा हुस्न-ए-जलवो पर जहाँ हारा मैखाना है.

तेरी तस्वीर के बिन ही मै पीने आज बैठा हूँ,
ख़ुशी या गम हो जुर्माना मुझे मारा मैखाना है.
    
हमेशा ही परोसे जाम हर 'शीशे' में वो भर के, 
सरापा पीने के जज्बातों को प्यारा मैखाना है.

छलावे में कभी इन्सान से पाला नहीं पड़ता,
छिपाया है हकीकत से वो एक तारा मैखाना है.

बुढ़ापे में यही बेटों ने 'बस्तीवी' दिया ताना,
जवानी में लुटाया दोस्तों पे सारा मैखाना है.

Saturday, March 17, 2012

जिंदगी ले के चली

जिंदगी ले के चली, एक ऐसी डगर,
राह के उस पार, चलते हैं हम सफ़र. 

रात और दिन, मील के पत्थर जैसे हैं,
मोड़ बन जाते कभी, हैं चारों पहर.
  
फादना पड़ता है, दीवारें अनवरत,
ढूँढना चाहूँ मै, 'उसको' जब भी अगर.

शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर.

द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें,
बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर.

जिंदगी में लेने आता एक बार, पर-
बैठती हूँ रोज, 'बस्तीवी' सज संवर!

Wednesday, March 14, 2012

दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में

दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में,
वादों से गर्म दाल परोसी चुनाव में.
ढूंढे नहीं  मिला एक भी रहनुमा यहाँ,
सच कहने सुनने की हिम्मत रखे स्वभाव में.

तब्दीलियाँ है माँगते यों ही सुझाव में,
फिर भेज दी है मूरतियां डूबे गाव में,
दिल्ली में बैठ के समझेंगे वो बाढ़ को,
लाशें यहाँ दफ़न होने जाती है नाव में.

पूछा क्या रखोगे मुहब्बत के दाव में?
आ देख नमक लगा रक्खा है घाव में,
तुम हमको कभी, पत्थर मार देते तो,
लहरें बनाते सुन्दर दिल के तलाव में.

कोयला बना चमक कर हीरा दबाव में,
वीणा से सप्त सुर निकले तनाव में.
पौधे कभी वो छूते नहीं आसमान को,
पलते जो हैं किसी बड़े बरगद की छाँव में.    

माँ को सुकूँ है जब, बेटे खाते हैं चाव में.
उसको है दर्द, मुझे चुभते कांटे पाँव में.
घर ना बना सके गर 'राकेश' इस शहर, 
जी लेंगे माँ के आंचल की नर्म छाँव में.

'बागी' नहीं वो क्या होंगे, कविता के ठाव में?
जैसे बहेलिये कुछ, चिड़ियों के ताव में.
देखा कभी है कोयल, घर की मुडेर पर,  
शायर नहीं ठहरते, काव काव में. 



Saturday, March 10, 2012

माग मत अधिकार अपना

माग मत अधिकार अपना, ये अनैतिक कर्म है, 
ठेस लगती है हुकूमत का बहुत दिल नर्म है.
 
हक हमारा कुछ नहीं, पुरखे हमारे लापता,
हर तरक्की के लिए बस 'द्रष्टि उनकी' मर्म है. 

सैर को आये कभी जब समझ उपवन गाँव को, 
खेत सूखे देख कर गर्दन झुकी है, शर्म है. 

कह दिया गर 'भूख से हम मर रहे है ऐ खुदा!'
बोला गया तब सब्र और विश्वास रखना धर्म है. 

कट गए सद्दाम या लादेन, गद्दाफी सड़क पर,
तब समझ में आ गया खूं कौम का भी गर्म है!

लूट, हिंसा और लिप्सा से निकलए शेख जी,
भोर होने आ चली, काली निशा का चर्म है.

--------------- मध्य प्रदेश की सरकार की ख़ामोशी के नाम.

Thursday, March 08, 2012

होली नहीं तो क्या मज़ा!

जिंदगानी में अगर होली, नहीं तो क्या मज़ा.
गर नशे में भाँग की गोली, नहीं तो क्या मज़ा.

मानता त्यौहार हूँ, है भजन पूजन का दिन, 
पर वोदका की बोतलें खोली, नहीं तो क्या मज़ा.

टेसुओं गुलमोहरो के रंग से मत रंगिये,
दो बदन में कीचड़ें घोली, नहीं तो क्या मज़ा.

छुप के गुब्बारे भरे, रंग फेकते बच्चे यहाँ!  
खुल के रंगी चुनरे-चोली, नहीं तो क्या मज़ा.

रोकने से रुक गए क्योँ हाथ तेरे रंग भर,
भाभीयो ने गालियाँ तोली, नहीं तो क्या मज़ा.

मिल रहे हैं सब गले, एहसान जैसे कर रहे,
गर जबाँ पे प्यार की बोली, नहीं तो क्या मज़ा!

अपने घर में तो सभी, रंगते मगर 'राकेश' ऐ!
चौक-चौबारो में रंगोली, नहीं तो क्या मज़ा.
  

Wednesday, March 07, 2012

बलम रंग रसिया हो!

रंगी रे चुनरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

मनवा में हूक उठै,
देवर-ननदिया दौड़ाई,
गव्वा के देहरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

यार संगे द्वार बैठे,
हम भीतर अकुलाई,
चढी देखि अटरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

घेरी घेरी रंग डारै,
सारे अवध के भौजाई,
हमार जरै जेयरा हो!
बलम हरजैय्य  हो!

बिना साज-सिंगार देखे,
रंग डारै झकाझोर,
भरि के पिचकरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

लाल लाल रंग चढे,
तोहरी सोहबत से,
भीगी रे पियरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

कौन कम है हियाँ के जमीनिया,
काहें छोड़ी जाए आपन पुरनिया, (बुजुर्ग)
अब ना जायो नौकरिया हो!
बलम परदेसिया हो!

Tuesday, March 06, 2012

जनता ने फिर से चुन ली


जनता ने फिर से चुन ली, एस पी की सरकार,
लूट पात अब तुम करो, गै माया कै राज.
गै माया कै राज, कहै कवि 'राकेश'
हाथी की मुंडी करो, थाल में भर कै पेश.

देख सके तो देख ले, बी जे पी, कांग्रेस,
तुम जनता से नही जुड़े हो, यही रहा संदेश.
यही रहा संदेश, करो अब मीडिया बाजी,
चली भैईस साशन करे, खबर यही ताजी.

रोवै पंडित या दलित, तुला और तलवार,
हसि हसि जुगत लगावै, वोटन कै व्यापार.
वोटन कै व्यापार, कहैं 'सोशल इंजीनियरिंग'
मिले गला उनकै, जिनका गरियावै छिन छिन.

मुस्लिम वोटो के लिए, दिया कई लालच,
उर्दू शिक्षा माफ़ है, आरक्षण भी सच!
आरक्षण भी सच, बोलते मीठी बोली,
अब बस ईद मनावेंगे, छोड़ देंगे होली.

राजनीती कर कर के, हमको खूब छला, 
जनता रक्खै याद, कौन कितना है भला,
कौन कितना है भला, कहै कवी 'राकेश',
अगले चुनाव तक तो, खुलैगो तुम्हारो भेस.

Monday, March 05, 2012

-जीवन और होली 3-

फागुन में इस बार पड़ी है, मित्रो लोकतंत्र की होली,
वोट मागने निकल पड़ी है, नेता लोगो की टोली.
पांच साल के वादो का फगुआ गा-गा कर जाते हैं, 
छेड़, शरारत भूल-भाल कर शकल बनाई है भोली,

भ्रष्टाचार को ढक पायेगी खादी की उजली चोली! 
मत्त हुए हैं शासन पाकर, भूले जनता की बोली,
राजभव के हरे लान में, छनती दूध भरी भंगरायी,
जनता के पैसो से कैसे देखो, खेल रहे हैं ये होली !

रंग भरा व्यक्तित्व है उनका, नारे-वादो से होली,
मंत्रिपद है वहीँ जमेंगे, इस टोली या उस टोली,
भेद भाव है कहाँ वोट में हिन्दू का या मुस्लिम का,
जिनको गाली देते थे, उनसे कर बैठे हमजोली.

अगर चाहते बची रहे ब्रज रूपी संसद की 'रसिया'.
सबमे बाँटो एक बराबर भारत के 'धन की गुझिया'.
जनता के हर जख्मो को, वोटो में तुमने है तोली
बंद करो अब बंद करो तुम, लूट पाट की ये होली. 
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ऊख उगाकर, उसे जलाकर, मना रहा है वो होली,
जो कपास पैदा करता है, फटी रही उसकी चोली,
आखिर कब तक खून-पसीने पर न कोई राग-फाग,
आखिर कब तक रात बिताने को लेनी है भंगोली.

बिक गया बरसाना का खेत, बिक गयी बैलो की टोली, 
किसी शहर की बनती बिल्डिंग, में होगी अब रंगोली,
मुआवजा ऐसी गुझिया थी, चंद दिनों में ख़तम हुयी,
अब तो पूरी उम्र रहेगी, बेजारी की यह होली.


-जीवन और होली 2-

वर्ष परक है चित्त लुभावन, मदिरालय की है होली,
कानो में फगुआ से घोले, साकी बाला की बोली,
देश-विदेश से छनकर आई, भंगराई ही मस्ती ले,
दिलो-दिमाग पे छा जाती है, ऐसी बनती रंगोली.

भींच लिया मदिरो को, जब हमने निज आलिंगन में,
सुख-दुःख दोनों बद्ध किये कर, खड़े रहे अभिनन्दन में,  
ना ना ना ना करते रहते, जब तक बोतल ना खोली,
भद्र जनों ने दिखलाया फिर, क्या है भंग सहित होली!
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गुलमोहर के फूलो से है, मौसम खेल रहा होली,
पीले सरसों के फूलो से, रंगी धरती की चोली,
माघ बड़ा थर्राए है, और चैत पसीना लाये है,
हमको तो लगाती है बस, फागुन की सूरत भोली.

भंग चढ़ा है पुरवा को भी, डगमग डगमग है डोली,
हिचकी ले कर गान सुनाती, कोयल की मीठी बोली.  
बख्शा है मौसम ने सबको, थोड़ी मस्ती, बरजोरी, 
उठा गुलाल रंग ले जीवन, तू क्यों पीछे इस होली?
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दुश्मन दल की चिता जला, मनती है उनकी होली,
खुद खाते, दुश्मन को देते, गुझिया शायद है गोली. 
घाटी ब्रज-बरसाना जैसी, बंदूके पिचकारी सम,
खून से लथपथ-सराबोर है, वीर जवानो की चोली. 

राष्ट्र गान का फगुआ गाती, हिंद सपूतो की टोली,
जोश-खरोश में गूंज रही है, भारत के जय की बोली.   
भांग चढ़ा है देश प्रेम का, झूम रहे गलबहियाँ डाल,
मस्ती की जो यहाँ छटा है, और कहाँ ऐसी होली?

-जीवन और होली 1-

"मित्रो, मैं मानता हूँ की होली मस्ती के लिए है, लेकिन थोड़ा सा अलग विचार व्यक्त कर रहा हूँ, संभालिएगा."

पुनि पुनि भीगे ड्योढ़ी आँगन, कण कण उभरे रंगोली,
रंग चढ़े इस बार अगर तो, उतरे फिर अगली होली.
कैसा पुलकित दृश्य उपस्थित, भीग रहे नटवर नागर,
राधा संग गोपों की टोली, गोपियों प्रभु की हमजोली.   

भेद मिट गया, सराबोर है, अंतस, देह, और चोली,
प्रभु भक्ति मदमस्त कर रही, जबरदस्त यह भंगोली.
तृप्त हो गया, जी भर छाना, ऐसी ठंडई कहाँ मिले?
कृष्ण खड़े हैं लिए बांसुरी, मन मोदित है यह होली.


मोह, ईर्षा और दंभ को, जला होलिका में बोली-
'सा-रा-रा-रा', दिग्दिगंत के बंध खुल गए इस होली,
मुझको फर्क नहीं दिखता है, 'राधा' या 'गोविंदा' का,
दोनों की चुनरी को मैंने, 'हरे' रंग में है घोली.

'हरि' बन जाते पिचकारी, मै बन जाता हूँ तरल रंग, 
मेरा अंतस श्वेत दुग्ध औ, प्रभु की काया गरल भंग, 
भीगे सारे रंग शिथिल हो, बरसे चूनर औ चोली,
मेरा सेवन कर के देखो, भंग झूमता इस होली.  

तुम कहते फागुन में आती, एक बार ही बस होली!
मै कहता मुझमे बसती है मस्ती की हर भंगोली.
आओ देखो कभी झोपड़ी मेरी, तुम बारह मासो,
बेफिक्री से यहाँ फकीरी, खेल रही गुलाल-रोली.

तुम्हे पड़ी है गुझिया कैसे, फिर से कल हम खायेंगे,
अपना मुह मीठा करने को, फिर से कल गम आयेंगे. 
जमी हुयी है सात परत में, मन में यायावर रंगोली,
बहार यदि हो ईद, दीवाली, दिल में जलती है होली.


मान और अपमान पिया, तब असर दिखाई भंगोली,
धर्म पंथ को छोड़ दिया, तब मिलते सच्चे हमजोली,
गले मिलो तो फिर तुम ऐसे, जात-पात मत पूछो हे!
कई रंग में गुंथ कर बनती, इस समाज की रंगोली.


छुई नहीं ब्रज की माटी है, गया नहीं मै बरसाना,
देखा नहीं अवध में मैंने, राम लाला का फगुआना.
दे पाउ अनाथ बच्चो को, वापस यदि मै हंसी ठिठोली,
धन्य रहेगा रंग खेलना, आत्मसात होगी होली.




Saturday, March 03, 2012

दुनियादारी के दस हाइकू

फूटा ठीकरा
शेख बच निकला
तू था मुहरा


ढूंढ़ बकरा
शनैः रेत लो गला
दे चारा हरा


बेजुबाँ खरा
हक मागने लगा
तो दोष भरा


अना दोहरी
नश्तर सी चुभन
दगा अखरी!


यहाँ खतरा
ईश्वर हुआ अंधा
इन्सां बहरा


यार बिसरा
अब यहाँ क्या धरा
चलो जियरा


छटा कुहरा
छद्म बंधन मुक्त
पिया मदिरा


समा ठहरा
इंद्रधनुषी दुनिया
नशा गहरा


नेत्र बदरा
लगा झरझराने
रक्त बिखरा


नशा उतरा
आई घर की याद
बुझा चेहरा

Friday, March 02, 2012

हम लगायेंगे जबान पर मसाला नहीं


हम लगायेंगे जबान पर मसाला नहीं, 
अपनी गजलो में शऊर का ताला नहीं.

पैरवी उनके हसीन दर्द की क्या करें,
जिनको लगा धूप नहीं, पाला नहीं.

मेहदी की तारीफ हम कैसे कर पाएँ, 
गाव मे एक हाथ नही जिसमे छाला नही.

सावन में मिट्टी की खुशबू उनके लिए है,
जिनके घरो से होके बहता नाला नहीं.

गुटखा बेचने के लिए ट्रेनो में घूमता है, 
दूध के दांत टूटे नहीं, होश संभाला नहीं.

सर झुका के भजने लिखूंगा, अगर, 
सबको रोटी की फ़रियाद, टाला नहीं.

मदहोशी के कसीदो में वो कहाँ है? 
जिनके आंसू में 'अम्ल' है, हाला नहीं.

Thursday, March 01, 2012

माँ रात भर, जगती थी मेरी हर बीमारी में


बचपन का क्या बयान करू, कुछ याद नहीं रहा दुनियादारी में, 
बस ये नहीं भूला की माँ जागती थी रात भर, मेरी हर बीमारी में. 

मै भूखा हूँ, मुझको सताया है ज़माने भर ने नादान समझ कर, 
ये बातें उसको कैसे पता चल जाती है, घर की चाहर-दीवारी में. 

उसे भी मालूम है कि, घर के बाजू में मलमल की कई दूकाने है,
बेटे की हौसला अफजाई करती है सूती धोती की खरीददारी में.  

सीना तान के करता हूँ हर तूफानी हवा-पानी का सामना मै. 
मेरी माँ की दुआ की छतरी साथ चलती है मेरी रखवारी में. 

मलाल है मुझे गुडिया ही खेलने को मिला, बहनो से छोटा था, 
राखी के सौ रुपये से, घरोदे की मुक्कमल छत आई मेरी बारी में. 

मै क्यूँ अपनी माँ को इस कदर चाहता हूँ, ये बात समझ गई! 
मेरी शरीक-ए-हयात भी जब पहुँच गयी माँ की बिरादरी में. 

उधार की कील पर, दो कमरो के ताबूत जैसा था ये मकान,
माँ की चिट्ठी आई, और घर रोशन हो गया दुआ की चिंगारी में.