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Monday, February 27, 2012

बदला


बात 1970 के आस पास की है. पारसपुर में पंडित शिव राम अपनी 15 साल की फ़ौज की नौकरी पूरी कर वापस आये. इस गाव के पहले व्यक्ति थे जिन्हें नौकरी के लिए बाहर जाना पड़ा. वैसे तो साल में दो बार छुट्टियों पर आया करते थे और फ़ौज की टोपी लगा के गाव भर में घूमते रहते थे. मगर सन 1965 की लड़ाई के बाद उनका ओहदा बढ़ गया था और 2-2 साल में एक बार आया करते थे. फिर जब वो गाव में कभी वापस न जाने के लिए आये, तो फ़ौज की टोपी उतर का गाँधी टोपी पहन ली, और अवधी में हमेशा गाया करते थे:
"हम तो देशवा का सुधर बै, परिसरम के दानी बनि के नाय,
नरवा गाँधी के लगई बै, परिसरम के दानी बनि के नाय".

छह फुट का लम्बा चौड़ा कद और बड़ी बड़ी रोबदार मुछो से उनकी शख्शियत से ही बहादुरी और कद्दावर पन छलकता था. हालाँकि उन्होने आज तक किसी गाव वाले पर हाथ नहीं उठाया था किन्तु सब लोग उनसे डरते थे. अब चूकी वो सबसे ज्यादा पढ़े लिखे भी थे और फ़ौज में भी काम कर के आये थे तो सब लोग उनकी बात मानते थे.  

उन्होने आधुनिक ढंग से खेती बाड़ी करना शुरू किया और गाव की बाकि लोगो को भी इसके बारे में बताया. जब अनेक गावो में केरोसीन का तेल भी मिलना मुश्किल था, अपने पैसे और जद्दोजहद के दम पर उन्होंने पारसपुर में बिजली लाई. तमाम सारे खेतिहर मजदूरो को उचित मूल्य पर काम करवाया. और जब भी कोई मजदूरी की शिकायत ले कर आता था तो खुद जा के लोगो को समझाते थे कि, "समाज का कोई भी अंग अगर कमजोर हो गया, तो फिर व्याधि की तरह पूरे शरीर को कष्ट देगा". कुछ 4-5 सालो में उनके ही गाव की नहीं आस पास की गावो की भी पैदावार बहुत ज्यादा बढ़ गई. उनकी सूझ बूझ और दबंग प्रकृति के कारण, पूरी तहसील के लोग उन्हें 'कृषि मास्टर' के नाम से भी जानते थे.

पंडित जी की इस काबिलियत और प्रसिद्धि से लोगो का चिढना लाजमी था. किन्तु उनका फ़ौज से सम्बन्ध और कद काठी की वजह से लोग बस दिल में ही जल सकते थे.  'उनके पास बंदूक है' की चर्चा के नाते किसी की भी कुछ कर पाने की हिम्मत नहीं होती थी. एक दिन तहसील की बड़ी बाज़ार में ठाकुर विश्वनाथ सिंह ने पंडित जी को रोका. उनकी साइकिल की हैंडल पकड़ कर बोले "कृषि मास्टर! हमारे मुफ्त के मजदूरों को अपने खेतो में काम करवा रहे हो, जरा संभल कर, लाठियो में गोली भरने की जरूरत नहीं पड़ती". ये सुनते ही साईकिल के पीछे बैठा उनका बड़ा लड़का उतर कर कुछ बोलना चाहा, मगर पंडित जी, ने उसे चुपचाप पीछे बैठ जाने को कहा. हँडल से विश्वनाथ का हाथ रगड़ कर छुड़ाया और आगे बढ़ गए.  
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सुबह के पांच बजे थे. शिव राम नित्य कर्म के लिए गाव के खेतो में दूर तलक जाया करते थे, सुबह की सैर भी हो जाती थी और फसलो को एक नजर देख भी आते थे. आज भी दातून मुह में डाले और हाथ में लोटा लिए गन्ने के ऊँचे ऊँचे खेतो के बीच से जब वे गुजर रहे थे, तभी झुरमुटो में एक हलचल सी महसूस हुयी. उन्होंने लोटा वहीँ  रखा दिया और अपनी टार्च जला के इधर उधर देखने लगे. फिर हलचल वाली जगह टार्च का फोकस मार के ललकार के बोले "कौन है वहां?" 

कुछ उत्तर न आता देख और शांति भाप कर उन्होने टार्च फिर से अपनी लुंगी में खोस ली और लोटा उठाने के लिए वापस झुके. उसी छड उन्हें अपने सर पर एक जोर दार चोट का एहसास हुआ और औंधे मुह गिर गए. इसके बाद चार पांच लोग मुह बांधे हुए झाड से बहार निकले और लाठियो के ताबड़तोड़ प्रहार चालू कर दिया. कुछ देर चिल्लाने के बाद वो बेहोश हो गए. जब लठैतो को लगा की अब उनमे जान नहीं बची है तो भाग निकले. 

इधर शिव राम को घर से गए हुए एक घंटा हो चला था. ढुढाई शुरू हुयी. किसी ने दूर खेते से आवाज लगाया. लोग भागते हुए पहुचे. खून से लथपथ शरीर को चार पांच लोगो ने उठाया और रोते कलपते घर की ओर ले के चल दिए.

बिजली की तरह ये खबर पूरे तहसील में फ़ैल गई. आनन फानन में जो भी वैद्य का कम्पाउनडर मिला, लोग ले के पारसपुर पहुचने लगे.

पंडित जी के सांस की एक डोर बाकि थी और उसी के भरोसे कई गाव के लोग दो तीन दिन तक उनके दरवाजे पर ही बैठे रहे. तीन दिन बाद उन्हेंने पहली बार आंख खोल कर पानी लाने का इशारा किया. 
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शिव राम जी के कई फ़ौज के मित्रो को ये बात पता चली. 10 दिन बाद जब उन्हें काफी राहत मिल गई थी, तो पूरी एक जीप भर के फौजी जवानो की टोली उनके दरवाजे पर पहुची. लेटे लेटे ही उन्होंने अपने मित्रो का अभिवादन स्वीकार किया. जल पान के बाद फौजियो में से कोई बोला, "पंडित जी! कैसे लोग थे कुछ याद है?"

शिव राम अभी भी बहुत ज्यादा बोलने में असमर्थ थे. इससे पहले वे कुछ इशारा करें, उनके बड़े लडके ने तुनक कर कहा, "हमारे बाबू जी से बहुत से लोग चिढ़ते हैं और विश्वनाथ सिंह तो खासकर. हो न हो इसमे उसी का हाथ है", और बाजार वाली घटना भी बताना चाही. किन्तु बीच में ही शिव राम ने अपने लडके का हाथ भींचा और, उंगली से अपने होठ ढक के चुप रहने का इशारा किया. फिर आकाश की तरफ हाथ उठा के कहना चाहा कि "सब भगवान् की इच्छा है, जो हो गया सो हो गया".

इसके बाद कई बार पोलिस आई और फौजी मित्र आये, पर उन्होने किसी का भी नाम लेने से मन कर दिया, ऐसा कह कि कि मैंने "अपने कुछ गाव के लोगो को क्षमा किया है, इसमे मेरा ही स्वार्थ है."
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रात का दूसरा पहर रहा होगा. आंगन में जहाँ शिव राम सोये थे, धप्प करके के आवाज आई. वो जग गए. एक इंसान का मुह ढाका हुआ साया दिखा, चारपाई के करीब आया, और पाँव के पास आकर बैठ गया. उसने अपना मुह खोला और शिव राम ने टार्च से लाइट मारी. बगल के गाव के ठाकुर विश्वनाथ सिंह का चेहरा साफ़ साफ़ दिखाई पड़ रहा था. वो पंडित जी के पैरो पर लिपट गए, और आंसुओ से कहें तो चरण भिगो गए. 

शिव राम बोले, "विश्वानाथ जी, मै आपको और आपके लडके को उसी दिन पहचान गया था, किन्तु फ़ौज में मैंने एक कसम खाई थी कि अगर हाथ उठाऊंगा तो अपने गाव- देश की भलाई के लिए, नहीं तो कभी हाथ नहीं उठाऊंगा. बस उसी के नाते आपको माफ़ कर दिया है."

"कृषि मास्टर! मै माफ़ी के काबिल नहीं हू, आप अपनी बन्दूक से मुझे दाग दीजिये" विश्वनाथ बाबू एक लम्बी सांस खींच कर बोले. शिव राम बोले, "जाइये! घर जाइये, कल मै स्कूल के लिए पैसा मागने आऊंगा, जी खोल के प्रायश्चित कर लेना और जितना हो सके दान कर देना."

ठाकुर विश्वनाथ ने 15 -20 बीघा जमीन छोड़ के बाकी सब पंडित जी को दे दिया, जिस पर उन्होने इंटर कालेज और एक डिग्री कालेज भी खोला.

शिव राम ने अपना बदला ले लिया था.
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Tuesday, January 24, 2012

भाषा ज्ञान: Bhasha Gyaan

मै शुरू शुरू में चेन्नई (तब मद्रास था) पढाई करने गया, तो अक्सर दोस्तों से मिलाने बंगलोर जाया करता था. जहाँ तक संस्कृति सभ्यता की बात है, उत्तर भारत में पाले बढे होने के कारण मुझे बहुत ही ज्यादा अंतर महसूस हुआ. धीरे धीरे अभ्यस्त हो गया. और मै इतना बताने में भी सक्षम हो गया कि ये बोली तमिल है, तेलगु है या फिर कन्नड़. जहाँ तक ऑटो रिक्शा वालो कि बात है सभी को आती है, बस अधिक किराया वसूलने के चक्कर में आपकी भाषा से अनजान बनते हैं. खैर भोले भाले कहीं के रिक्शे वाले नहीं होते हैं.

 उस दिन मेरी भी रात की बस थी चेन्नई के लिए. बस के पिक-अप पॉइंट पे बस आई और सभी लोग चढाने लगे. एक गोरी चमड़ी वाला युवक भी था जो यूरोपियन मूल का लग रहा था. उसके साथ थोडा ज्यादा सामान था तो बस वाले ने कुछ ज्यादा पैसे मागे होगे. इस पर बहस हुने लगी. पहले तो वह नव युवक टूटी फूटी इंग्लिश में बात कर रहा था. इससे मुझे समझ में आया की वो ब्रिटिश मूल का तो नहीं है. किन्तु जब कंडक्टर ने भाषा न समझाने का बहाना बनाया, तो वो हिंदी में बोलने लगा. ये एक सुखद अनुभव था, कि जहाँ हमारे दक्षिण के भाई बंधु हिंदी भाषा का ये कह के तिरस्कार कर देते हैं, कि इससे उनकी क्षेत्रीय भाषा को खतरा है और कहाँ ये युवक जो कि ब्रिटिशर न होते हुए भी हिंदी बोल रहा है. 

 किन्तु बस बाला भी बस वाला था. उसने हिंदी भी न जानने का बहाना बनाया. इस पर वो युवक उसे कन्नड़ में मोलभाव करने लगा. ये देख के मैंने दांतों तले उंगली दबा ली. और हद तो तब हो गई जब उसने ये बोला की 'नान तामिल पेस वेंदुम' मतलब 'मुझे अपनी तमिल का अभ्यास करना पड़ेगा.' मेरी समझ में आ गया कि यूरोपियन व्यापारी किस तरह आपकी भाषा ही सीख कर आपका ही सामान आपको बेच सकते हैं. मेरे भोले भाले हिन्दुस्तानियो भाषा कि लड़ाई में अपना वक्त न जाया करो. सब भाषा अच्छी है, सब भाषाओँ का सम्मान है. माना कि क्षेत्रीय या मात्र भाषा का अपना अलग ही स्थान होता है, किन्तु अधिक से अधिक भाषाएँ सीख कर आप अपने ही ज्ञान का दायरा बढ़ाएंगे. 

 संत कबीर ने क्या अच्छी बात की, ये किसी दक्षिण भारतीय को नहीं पता, इसी तरह संत तिरुवल्लुर ने क्या ज्ञान बाटा ये उत्तर भारतीय नहीं जान पाएंगे. इसलिए अधिक से अधिक भाषाएँ सीखिए. और ये बात उत्तर भारतीयो पर ज्यादा लागू होती हैं, क्योन्कि  सबसे ज्यादा शिकायत करने वाले यही लोग है कि अन्य लोग हिंदी नहीं सीखते. किन्तु एक बात जान लीजिये कि उत्तर भारतीयो का ही अन्य भाषा ज्ञान सबसे ख़राब है. ये मेरा व्यक्तिगत अवलोकन है.  मुझे हमेशा ये खेद रहता है कि अत्यधिक अकादमिक दबावो में रहते हुए, और इंग्लिश में काम चल जाने कि वजह से मै अन्य भाषाएँ नहीं सीख पाया.  

Wednesday, January 18, 2012

सीधा लड़का: Seedha Ladaka

मेरे बचपन के मित्र के बड़े भैया पढ़ने में बड़े तेज़ थे, और पूरे मोहल्ले में अपनी आज्ञाकारिता और गंभीरता के लिए प्रसिद्ध थे. सभी माएं अपने बच्चो से कहती थी की कितना 'सीधा लड़का' है. माँ बाप की हर बात मानता है. वो हम लोगो से करीब 5 साल बड़े थे तो हमारे लिए उनका व्यक्तित्व एक मिसाल था, और जब भी हमारी बदमाशियो के कारण खिचाई होती थी तो उनका उदहारण सामने जरूर लाया जाता था. मेधावी तो थे ही, एक बार में ही रूरकी विश्वविद्यालय में इन्जिनेअरिंग में दाखिला मिल गया. वहा से पास होते ही नौकरी भी लग गई.

किन्तु उनके पिताजी को IAS से बड़ा ही सम्मोहन था और वो अपने लडके को किसी जिले का मालिक देखन चाहते थे. इसलिए उसे नौकरी से वापस बुला लिया और IAS का भी इम्तिहान देने को कहा. भैया इतने आज्ञाकारी थे कि नौकरी छोड़ के आ गए. उन्होंने फिर अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए  IAS बन गए. अब क्या था! उनके पिताजी जी कि ख़ुशी का ठिकाना न था. हर जगह मिठाई बाटते फिरे. आखिर IAS का दहेज़ भी तो हमारे समाज में सबसे ज्यादा होता है. 


दिन बीतते गए और तरह तरह के संपन्न रिश्ते आते रहे. किन्तु हमारे भैया किसी न किसी तरह से उसे मना कर देते थे. एक दिन मेरे मित्र के पिताजी सुबह सुबह ही चिल्ला रहे थे. थोड़ी देर बाद लोगो को पता चला की भैया अपनी ट्रेनिंग पूरी कर के आ गए है, और साथ में बहू और 3 साल का एक बच्चा भी लाये है. 
जैसे तैसे चाचा जी को समझाया गया. बहू अच्छी थी उसने घर में सबको खुश रक्खा.


अब जब कभी भी हमारे मोहल्ले में कोई प्रेम प्रलाप होता है तो घर वाले उसका विरोध नहीं करते. बल्कि भैया वाली बात की उलाहना देते हैं और कहते हैं की जहाँ आप लोग की मर्जी शादी कर लेना मगर इस तरह अचानक से बहू और बच्चा ला के 'हार्ट अटैक' मत देना. 
बहुत संपन्न होने के बाद भी चाचा जी को दहेज़ न मिल पाने की खलिश आज भी कभी कभी सताती है.

Friday, January 13, 2012

मूंगफली: Peanutes

मेरा एक छोटा दोस्त है माहिम में. उसका घर धारावी में है, जो कि महिम से लगा हुआ एक बहुत बड़ा 'स्लम' है. ये वही जगह है जिसे हम बड़ी शान से कहते हैं कि एशिया का सबसे बड़ा 'स्लम' है. मेरा दोस्त आठवी क्लास में पढता है, और पिछले दो या तीन साल से धारावी से माहिम आता है. उसका स्कूल और मेरा ऑफिस लगा हुआ है, तो कभी कभी मिलते मिलते दोस्ती हो गई.

आज मुझे काफी दिन बाद मिला. उसके हाथ में छिलके वाली भुनी मूगफली का एक पैकेट था. उसने मेरी तरफ बढाया पर मैंने नहीं लिया सोचा की इतने छोटे पैकेट में से मैंने ले लिया तो वो क्या खायेगा. पर एक बात अजीब लगी. वो मूंगफली छिलके सहित खा रहा था. मैंने कहा बेटा पेट ख़राब हो जायेगा, छिलके सहित क्यों खा रहे हो?

वो बोला - "अंकल! मुझे आज से दो साल पहले भी 5 रुपये स्कूल से लौटते वक्त कुछ खाने के लिए मिलते थे, और आज भी 5 रुपये. पहले इतनी मूंगफली आ जाती थी कि मै छिलके निकाल के खाते हुए घर तक पहुच जाता था. मगर अब आधे रस्ते में ही ख़तम हो जाती है. हाँ पर अगर मै छिलके सहित खाऊं तो पूरे रस्ते चलती है".

इस उत्तर के बाद मै कुछ बोल नहीं पाया. वो तो निकल गया और मै ये सोच रहा था कि आज 5 रुपये में एक बच्चे को खाने भर को मूंगफली नहीं मिलती है, और हमारे नेता और सरकारी बाबू लोग गरीबी की रेखा 32 रुपये कर दिए हैं.

Thursday, January 12, 2012

माँ का प्यार: Maa Ka pyar

माँ मुझे बचपन में मेरी उम्र के हिसाब से कुछ ज्यादा ही रोटियां दिया करती थीं. इंटरवल में सारे बच्चे जल्दी जल्दी खाना ख़त्म करके खेलने चले जाते थे. और मै अपना खाना ख़त्म नहीं कर पता था. तो डब्बे में हमेशा ही कुछ न कुछ बच जाता था, और मुझे रोज़ डांट पड़ती थी. मेरी बहन भी घर आ के शिकायत करती थी कि उसे छोड़ के इंटरवल में मै खेलने भाग जाता हूँ.

एक दिन मेरी बहन मेरे साथ स्कूल नहीं गई. मै ख़ुशी ख़ुशी घर आया और माँ को बताया की मैंने आज पूरा खाना खाया है. माँ को यकीन नहीं हुआ, उनहोने डब्बा खोला और मुझे दो झापड़ रसीद कर दिए.

फिर माँ बोली की आज तुमने अपना पूरा खाना फेक दिया इसलिए मार पड़ी है. मुझे मालूम है की मै तुम्हे ज्यादा खाना देती हूँ और तुम छोड़ोगे ही. लेकिन अगर 4 रोटी में से 2 भी खा ली तो कुछ तो तुम्हारे पेट में जायेगा.
ये माँ का प्यार था.

आज भी जब मै ये बात याद करता हूँ तो मेरी आँखे भर आती हैं, और सोचता हूँ की क्या मै भी कभी किसी को इतना प्यार कर पाउँगा.

Tuesday, January 10, 2012

कबूतर-खाना Kabootar-Khana

बोरीवली की एक और नीरस सुबह थी. जैसे तैसे भगवान् जो कोसते हुए मै ऑफिस के लिए तैयार हुआ. बर्तन माजने वाला एक दिन की छुट्टी ले के चार दिन से लापता था. किसी प्रकार अपने शब्दो को गाली की सीमा में जाने से रोकते हुए घर से बाहर निकला. मेरे घर के बाहर ही कबूतरो का जमवाड़ा लग जाता है. कुछ धार्मिक प्रकृति के लोग सुबह सुबह कबूतरो को चना खिला के दिन भर के किये पापो से मुक्ति पाना चाहते हैं. मै ये विश्वास करता हूँ की रात में कोई पाप न किया हो. वैसे बहुत ही सभ्य समाज है, तो इस बात की संभावना बहुत कम है. वहीँ पास में ही फुटपाथ पर एक चने की बोरी ले कर एक औरत बैठी रहती है. जो लोगो को चने बेच कर कुछ पैसे कमाती है.

पता नहीं कबूतरो की मुझसे क्या दोस्ती है की जैसे हि मै वहां से गुजरता हूँ सब के सब फड फडा के उड़ने लगते हैं, उनके शरीर की सारी गन्दगी उड़ने लगती है और बहुत तेज़ बदबू आती है. मुझे तो लगता है की अगर कभी बोरीवली में बर्ड फ्लू आया तो मुर्गे खाने की वजह से नहीं बल्कि कबूतर पालने की वजह से. बोरीवली स्टेशन जाने को रिक्शा भी वही से मिलता है. तो चाहे न चाहे वहां खड़ा ही होना पड़ता है जब तक कि किसी स-ह्रदय रिक्शा वाले को हम पे तरस न आ जाये. तो इस तरहसे मेरी सुबह के दो -चार पल शांति के प्रतीको के साथ गुजरता है. किन्तु वहां शांति बस प्रतीक के ही रूप में रहती है. इस स्थान और बोरीवली स्टेशन में सिर्फ कबूतर और आदमियो का ही फर्क है.

तो उस सुबह भी मै रिक्शा रूपी ब्रह्म के इंतज़ार में खड़ा था. कबूतरो से बचते बचाते, मेरी निगाह सड़क के दूसरी तरफ गई. वहां तीन चार छोटे बच्चे जमीन पे खेल रहे थे, लोट पोट रहे थे. उनकी माएं वहां नहीं थी. उनके भी हाथो में चने थे और वैसे ही दिख रहे थे जैसे कबूतरो को खाने के लिए दिए गए थे. हो सकता है किसी सज्जन व्यक्ति ने इन्हें भी दाना डाल दिया हो. तभी कबूतरो के झुण्ड के पास एक शोर सुनाई पड़ा. एक आदमी दोनो औरतो से झगड़ रहा था, या यो कह ले की उस जगह से भगा रहा था. मैंने थोडा ध्यान दिया तो पता चला कि वो औरतें जमीन पर गिरे हुए चने बीन रही थी और ये बात उसे असह्य थी कि कबूतरो का खाना कोई और खा ले.

इतने में मुझे भी एक स-ह्रदय रिक्शा वाला मिल गया और स्टेशन की तरफ चल पड़ा.