Friday, January 20, 2012

मेरी धरती की परिक्रमा: Dharti ki parikrama

Courtesy: Yahoo!
सुबह शून्य मस्तिष्क से साथ जगा. बीच में किसी भी प्रकार की मानवीय भावनाए आये बिना बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. मैंने ये महसूस किया है कि जहाँ आप ये सोचने लगे, कि आखिर हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, क्या मैंने इसी लिए इतनी पढाई की थी, या फिर भारत में मजदूर कानून की विडम्बना, तो फिर आपको बिस्तर साम्यवाद के सम्मोहन कि तरह जकड लेगा, जहाँ ये यह जानते हुए भी कि विकास की प्रक्रिया धीमे पड़ गई है, त्याग नहीं पाते. खैर, सुबह की गरिमा बनाये रखते हुए मैंने अपने आप को अच्छी तरह से धोया, पोछा, और भगवान् के सामने, आज तो कलयुग में सत्य नारायण की व्रत कथा का अध्यात्म सुन के ही रहूँगा, का मनोभाव लिए मस्तक टेक दिए. किन्तु तभी घडी ने न जाने कैसे माया से 8 बजा दिए, और मैंने दिल से उतर कर पेट की सोचते हुए, हमारे नेताओ की तरह देश सेवा का मोह त्यागकर, अपने आपको भगवत-विरक्त कर लिया. 

एक नजर घर की स्थिति पर डाला तो जापान में हाल में आये भूकंप की याद आ गयी और मन भारी हो गया. किसी प्रकार अपने दिल को, पूरी गन्दगी और अव्यवस्था के लिए पत्नी और काम वाली बाई को दोषी ठहराने में कमियाब रहा. हालाकि मुह से कहने कि कुछ हिम्मत नहीं हुई. क्योन्कि इससे एक को आमेरिका कि तरह आपके ऊपर आक्रमण करने का बहाना मिल जाता है, और दूसरी को, सरकार को बहार से समर्थन देते हुए राजनीतिक दल की तरह, छोड़ के चले जाने का मौका. तो मै भी एक जिम्मेवार प्रधानमंत्री की तरह, सरकार चलाने के बोझ के नीचे अपने आप को दबा हुआ मानकर, अपनी 'किंकर्तव्य विमूढ़' स्थिति को उजागर न होते हुए, ये वक्तव्य दे डाला की 'पूरे मंत्रिमंडल पर मै चौबीसो घंटे नजर नहीं रख सकता'. 

नाश्ते के लिए फीका दूध-कार्नफ्लेक्स देखते ही माँ के हाथो के आलू के पराठे याद आ गए. वो इलाहाबाद में नाज-नखरो के साथ सर्दी में 10 बजे तक, 'राहुल जी' की तरह किसी गरीब के घर जाने जैसा, एहसान करते हुए उठाना. फिर मीडिया को एक-एक कौर दिखाते हुए खाना. शायद उन्ही लाड प्यार के कारण 'बाबा रामदेव' की तरह अब जीवन बहुत कठिन लग रहा है. महगाई देखते हुए आज अंगूर या सेब की जगह केले मिले. तो मैंने उसे घर में ही खा लेना उचित समझा, क्योंकि केलो के ऊपर आ रहे तमाम फतहो के बाद ऐसा लगाने लगा है कि, अगर पुरुष भी अपनी रूचि केलो में सार्वजनिक करने लगे, भले ही खाने के लिए, तो उन पर कुछ टीका टिपण्णी या फ़तवा न आ जाये. 

एक सॉफ्टवेर इंजीनियर होने के बाद भी मै भारतीय मूल्यों का पूरा ध्यान रखता हूँ. यदि कोई छींक दे, या बिल्ली रास्ता काट दे, तो ऐसी सब विषम परिस्थितियो में अपनी अपनी यात्रा थोड़ी देर के लिए रोक देता हूँ. आज भी मै जैसे ही निकला 'लिफ्ट की लोबी' में किसी ने छीका. मन तो यही हुआ की 'आजाद' की तरह उसकी खोपड़ी पत्थर से खोल दू, किन्तु किसी माडल की तरह बस उसको तिरछी निगाहो से देख कर रह गया. वापस घर पर जा के, 'करण थापर' की तरह बीवी की तमाम बातो में से प्रश्न ढूंढ कर उत्तर देने से अच्छा, शेअर मार्केट में पैसा लगाने वालो की तरह, भाग्य पर भरोसा करना उचित समझा. 

सुबह बाइक की भी स्थिति मेरे जैसी ही थी. अंगड़ाइयों पर अंगडाइया, किन्तु स्टार्ट होने का नाम नहीं. उसकी हेड-लाईट मेरी तरफ एक याचन की दृष्टि से देख रही थी, कि भाई साहब इस महीने तो सर्विसिंग करा दो, किन्तु मै भी एक चतुर उद्योग पति की तरह बोनस देने की तारीख लगातार बढ़ाये जा रहा था. आज बाइक ने स्तीफा देने की ठान ली, फिर तमाम कोशिशो के बाद भी स्टार्ट नहीं हुयी और, टीम लीड की तरह  खुद ही कोडिंग का जिम्मा उठाते हुए, मै अपने पैरो पर स्टेशन की तरफ रवाना हुआ. वहां गल्ली में कुत्तो को सोया हुआ देख कर ईर्षा होने लगी. रात भर किसी 'पार्टी एनीमल' की तरह हर बाइक और रिक्शे के पीछे दौड़ने वाले, और सुबह 'हैंग ओवर' से जूझते हुए सोते रहते हैं.  

हमारे इलाके के रिक्शे वाले एक दम PHD धारियो की तरह अपनी मनमर्जी का काम करते है, और लाख कोशिशो के बाद भी अपनी ही महारत वाले रस्ते पर चलते हैं चाहे वहां जाने वाला कोई भी न हो. जब भारतीय मध्यक्रम बल्लेबाजो की तरह कोई भी रिक्शा रुकता हुआ नहीं दिखा, तो मन में छींक वाली अवधारणा को आंकड़ो की मजबूती मिल गई. एक रिक्शे वाला रुका और रुक के 2 मिनट तक सोच विचार करके के बाद, वारेन बफेट के निवेशो की तरह इन्तजार करके, लम्बी दूरी वाले यात्री के लिए रुकना उचित समझा.  एक 'फंडिंग' न पा सकने वाले नए उद्यमी 'Enterprenuer' की तरह मै भी गर्दन नीचे करके आगे बढ़ता रहा.  

एक सज्जन को मै स्टेशन तक लिफ्ट दिया करता था. आज किसी और से लिफ्ट ले के मुझे क्रास करते हुए ऐसे मनोभाव दिखा रहे थे कि, जैसे वो कोई कॉलेज जाने वाली छात्रा हो और बाइक का ब्रेक मारने के बाद उनके उभारो की  छुआन से जो आनंद रोज़ मुझे आता था, वो आज किसी और को देने वाले है. मैंने भी ऐसे भाव दिखाए कि मुझे भी किसी मुस्टंडे में कोई रूचि नहीं है, और बेटा कल से लिफ्ट मागना, 'एक्सीलेरेटर' दबा के अपनी धुँआ फेकने वाली बाइक से मुह काला न कर दिया तो कहना. 


जिस प्रकार गणेश भगवान् ने अपने माँ बाप के चारो ओर चक्कर लगाया था, उसी प्रकार, घर से ऑफिस का चक्कर भी मेरे लिए धरती की परिक्रमा है. मुंबई की लोकल, इतनी भीड़ में उनकी सवारी 'चूहे' की तरह नजर आती है, और बहुत बार वैसी ही चलती है. किन्तु जैसे चूहे के सिवाय गणपति किसी और चीज़ पर सवारी नहीं कर सकते, मेरे जैसे तमाम लोग, न चाहते हुए भी रेलवे लाइन की सुबह-सुबह के मन को विचलित कर देने वाले वातावरण से रूबरू होना ही पड़ता है. स्थिति ऐसी है कि, अगर आपको 'मिड-डे' पेपर की अश्लील चित्रों का आनंद उठाना है तो उसमे छपी फालतू की ख़बरें तो पढ़नी ही पड़ेंगी. इन्ही उधेड़ बुन में, कभी लिफ्ट और रिक्शे की आस में इधर उधर देखते हुए, स्टेशन तक पंहुचा. किन्तु इतनी जद्दोजहद जिस ट्रेन के लिए की थी वो ट्रेन, प्रथम प्रेम, की तरह धोका देके जा चुकी थी, और अगली ट्रेन, 'बालिका वधू' में ब्रेक के बाद वाले भाग की तरह, 15 मिनट बाद थी. 

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