Showing posts with label प्रतिबिम्ब. Show all posts
Showing posts with label प्रतिबिम्ब. Show all posts

Wednesday, April 25, 2012

ओ बी ओ चित्र से काव्य प्रतियोगिता -13

रचना को ओ बी ओ की कविता प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार मिला है:

अनायास ही छीनते, धरती माँ का प्यार,
बालक बिन कैसा लगे, माता का श्रृंगार ?

पंछी का घर छिन गया, छिनी पथिक से छाँव,
चार पेड़ गर कट गए, समझो उजड़ा गाँव.

निज पालक के हाथ ही, सदा कटा यों पेड़,
ज्यों पाने को बोटियाँ, काटी घर की भेड़.

लालच का परिणाम ये, बाढ़ तेज झकझोर.
वन-विनाश-प्रभाव-ज्यों, सिंह बना नर खोर.

झाड़ फूंक होवै कहाँ, कैसे भागे भूत,
बरगद तो अब कट गया, कहाँ रहें "हरि-दूत"?

श्रद्धा का भण्डार था, डोरा बांधे कौम,
भर हाथी का पेट भी, कटा पीपरा मौन.

झूला भूला गाँव का, भूला कजरी गीत,
कंकरीट के शहर में, पेड़ नहीं, ना मीत.

 --राकेश त्रिपाठी 'बस्तिवी'

Friday, April 20, 2012

सपना

उनको भी नया सपना दिखाया जाये,
फिर मिट्टी में ही, उसको मिलाया जाये.
.
पिछले वादों का जब भी, हवाला वो दें,
यों ही प्यार से, ठेंगा दिखाया जाये.
.
क्या ताकत है, जज्बाती खयालातों में!
ये 'राखी के धागों' से, बताया जाये.
.
जिन लोगों ने, देखा जिंदगी में ख़्वाब,
उन्हें रातों को भी अब जगाया जाये.
.
आयी है मुबारक सी, घडी घर मेरे,
इक सपना जवाँ बेटे से बुनाया जाये.
.
बे सर पैर की 'सच्ची' खयाली बातें,
हमको फिर से बच्चों सा बनाया जाये.
.
लाखों सपने माँ की आँखों में बसने दो,
बेटी का चलो डोला उठाया जाये.
.
दादी माँ के, 'वैसे ही रक्खे' हैं सब किस्से,
दिल से चुन के, पोते को सुनाया जाये.
.
तेरी शख्शियत से इक है, सपना मुझ में,
काजल सा ये आँखों में, सजाया जाये.

OBO Chitra Se Kavya Ank -12


जान बचाने से पूर्व, क्या वो पूछे जात!
किस नदिया का जल पिया, कौन जबाँ में बात?

धर्म-भाषा-जात परे, एक भारत की नीव,
माँ मै ऐसे ही करूँ, कष्ट मुक्त हर जीव.

कहीं कोसने मात्र से, मिटा जगत में क्लेश,
ह्रदय द्रवित यदि दया से, हाथ बढ़ा 'राकेश'.

केवल वो सैनिक नहीं, वह भी बेटा-बाप,
सेवा की उम्दा रखी, दैहिक-नैतिक छाप.

बदन गला कश्मीर में, जला वो राजस्थान,
कुर्बानी की गंध से, महका हिन्दुस्तान.

खाकी वर्दी तन गयी, मिला आत्म विश्वास.
पूरी होगी कौम की, हर एक सुरक्षा आस.

सैनिक जैसा बल-ह्रदय, मांगे भारत देश,
तन-मन-धन अर्पित करो, विनती में 'राकेश'.

Friday, March 30, 2012

तरही मुशायरा २१ के हेतु

अकड़ में नरमी, अदा में गरमी, कभी हमारे सजन में आये, 
वफ़ा के सच्चे, जबाँ के जलवे, कभी किसी आचरन में आये.
.
समा बंधा है, सुकूँ बहुत है, मगर वो वादा जहन में आये,
चलो लगायें फिर एक नश्तर, कि दर्द पिछला सहन में आये.
.
उतार कोकुन, निकाल चश्मा, वो मेरे वातावरण में आये,
मली फिजा है, हमारे 'रु' में, हवा से सिहरन बदन में आये.
.
ये नब्ज डूबी ही जा रही थी, कफ़न से ढकने, वो आये मुझको,
मेरे तबस्सुम का राज ये है, 'किसी तरह संवरण में आये'.
.
यहाँ मचलती जो भूख हर दिन, नहीं है चर्चा किसी अधर पर,
चहकते प्यादे, सवरते रस्ते, वो आज-कल आचमन में आये.
.
नहीं मयस्सर है साफ़ पोखर, हमें पिलाते हैं नारे-वादे,
मिला न पानी जो लान को तो, वो मुद्दतो में शिकन में आये,
.
फिजां में घोले, हवा सियासी, वो लूटने क्यों अमन को आया?
जिया में कुरसी हिलोर खाती, कि 'राम' तो बस कथन में आये.
.
नहीं कदर है, वो बात बेजा, लबों पे आये, जो वक्त पहले,
विचार जब निज चरित में आये, कथन तभी अनुकरण में आये.
.
चबाये सूखी रोटी है अब वो, जमीर जिसका घुटन में आये.
अना की चादर उतार फेंके, मुहब्बतों के चलन में आये.
.
भली सुनाये, प्रशस्ति पाए, उसी को दौलत उसी को शुहरत,
कवी जो बागी है आम जन का, बिना दवाई कफ़न में आये.
.
फटेगी छाती, बहेगा लावा भरा है जनता के मन बदन में,
नहीं गयी है ये आह बेजा, शगुन के आंसू नयन में आये.
.
गरीब बस्ती है छान मारी, जुगत लगाई 'मटेरियल' की,
मरा है 'बुधया' मुआवजे को, "शहर से कुत्ते" रुदन में आये.
.
जबाँ हिलाई, कि ऐ खुदा हम, तड़प के भूखो लगे हैं मरने ,
लगा ये तेवर बगावती, वो सशस्त्र बल से दमन में आये.
.
जमी तलाशी, कुआं बनाया, सुखन से पाये, तो चार घूँटें,
हमें सिखाएं, हुनर वो क्या है, पिता के जो अनुसरण में आये
.
जमीर को लग गयी बिमारी, वो मार आये हैं भ्रूड कन्या,
बड़े सुशिक्षित जनाबे आली, परम्परा के वहन में आये.
.
रसूल वालो कभी तो आओ, सड़क पे मेरे घरौंदे में भी,
दवा यहाँ है 'देशी गरल' की, जलन से तडपन सहन में आये.
.
करे तपस्या अनेक वाइज, समझ न पायें कि राज क्या है,
महज खिला के गरीब को वो, कैसे दिवान-ए-सुखन में आये.

Monday, March 26, 2012

हमको बहुत लूटा गया

हमको बहुत लूटा गया,
वादा तेरा झूठा गया.

झगड़ा रहीम-औ-राम का,
पर, जान से चूजा गया.

दर पर, मुकम्मल उनके था,
बाहर गया, टूटा गया.

भारी कटौती खर्चो में,
मठ को बजट पूरा गया ,

मजलूम बन जाता खबर,
गर ऐड में ठूँसा गया. (ऐड = प्रचार/विज्ञापन/Advertisement)

उत्तम प्रगति के आंकड़े,
बस गाँव में, सूखा गया.

वादा सियासत का वही,
पर क्या अलग बूझा गया!!

है चोर, पर साबित नहीं,
दरसल, वही पूजा गया.

माझी, सयाना वो मगर,
मन से नहीं जूझा, गया.

वो कब मनाने आये थे?
हम से नहीं, रूठा गया.

चोटें तो दिल पर ही लगी,
खूं आँख से चूता गया.

जो चुप रहे, ढक आँख ले,
राजा ऐसा, ढूंढा गया.

पैसों से या फिर डंडों से,
सर जो उठा, सूता गया.

दारु बँटा करती यहाँ!
यह वोट भी, ठूँठा गया. (ठूँठ = NULL/VOID)

संन्यास ले, बैठा कहीं,
घर जाने का, बूता गया.

नव वर्ष ‘मंगल’ कैसे हो?
दिन आज भी रूखा गया.

खोजा “खुदा” वो ता-उमर!
आगे से इक भूखा गया.

पीछे रहा है ‘बस्तिवी’!
सर पर नहीं कूदा गया.

Saturday, March 17, 2012

जिंदगी ले के चली

जिंदगी ले के चली, एक ऐसी डगर,
राह के उस पार, चलते हैं हम सफ़र. 

रात और दिन, मील के पत्थर जैसे हैं,
मोड़ बन जाते कभी, हैं चारों पहर.
  
फादना पड़ता है, दीवारें अनवरत,
ढूँढना चाहूँ मै, 'उसको' जब भी अगर.

शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर.

द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें,
बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर.

जिंदगी में लेने आता एक बार, पर-
बैठती हूँ रोज, 'बस्तीवी' सज संवर!

Wednesday, March 14, 2012

दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में

दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में,
वादों से गर्म दाल परोसी चुनाव में.
ढूंढे नहीं  मिला एक भी रहनुमा यहाँ,
सच कहने सुनने की हिम्मत रखे स्वभाव में.

तब्दीलियाँ है माँगते यों ही सुझाव में,
फिर भेज दी है मूरतियां डूबे गाव में,
दिल्ली में बैठ के समझेंगे वो बाढ़ को,
लाशें यहाँ दफ़न होने जाती है नाव में.

पूछा क्या रखोगे मुहब्बत के दाव में?
आ देख नमक लगा रक्खा है घाव में,
तुम हमको कभी, पत्थर मार देते तो,
लहरें बनाते सुन्दर दिल के तलाव में.

कोयला बना चमक कर हीरा दबाव में,
वीणा से सप्त सुर निकले तनाव में.
पौधे कभी वो छूते नहीं आसमान को,
पलते जो हैं किसी बड़े बरगद की छाँव में.    

माँ को सुकूँ है जब, बेटे खाते हैं चाव में.
उसको है दर्द, मुझे चुभते कांटे पाँव में.
घर ना बना सके गर 'राकेश' इस शहर, 
जी लेंगे माँ के आंचल की नर्म छाँव में.

'बागी' नहीं वो क्या होंगे, कविता के ठाव में?
जैसे बहेलिये कुछ, चिड़ियों के ताव में.
देखा कभी है कोयल, घर की मुडेर पर,  
शायर नहीं ठहरते, काव काव में. 



Monday, February 20, 2012

विज्ञापन

बेस्ट की बस के एक कोने में लटके टी वी में,
अचानक से हलचल हुई.
अष्टावक्र की स्थिति में खड़े होने के बावजूद,
लोगो की उत्सुकता जगी.
बहुत सारे रंगीन विज्ञापनो के बीच,
चार्ली चापलिन की एक ब्लाक एंड व्हाइट मूवी.

अब यात्री चार रुपये में मनोरंजन कर तो देते नहीं है.
ऐसे आंकड़े आये होँगे की, संत्रस्त परस्थितियों में-
इंसान ज्यादा चौकन्ना रहता है.
'अड्वरटाइजमेंट दिखाओ कालेज का!'
कौन सा बाप चाहेगा कि बच्चा ऐसी भीड़ बने?

इन विज्ञापनो ने बस में भी नहीं पीछा छोड़ा,
धक्को का नैसर्गिक सुख भी तोडा.
जबकि इनकी पहले से ही पकेजिंग कर दी गई है,
सारी या एक्सक्यूज मी के अर्थहीन शब्दो से.
आपके कष्ट को और मंगलमय और उद्देश्य पूर्ण-
बनाया गया है 'प्रचार' डाल कर.
अब प्रचार के बिना तो 'इंसान' को पता चलेगा नहीं कि,
"कन्या भ्रूण हत्या एक जघन्य अपराध है",
इत्यादि!

तड़के ही कई मेसेज मोबाइल पर रहते हैं,
अब तो अदात हो गई है.
पहले उठा के देखता था,
किसी जान-पहचान वाले का तो नहीं.
अब पता चल गया है कि नए रिश्तेदार कैसे बने.
मेरे अकाउंट के दस हज़ार रुपयो का भेद खुल चुका है.
और कोई बैंकर उनकी फ़िराक में है.
पर्सनल लोन या क्रेडिट कार्ड की आड़ में.

खाने की टेबल पर ऐसे ही ढूंढा,
की कुछ मिल जाये जिसे टी वी, रेडियो, अखबार,
इन्टरनेट, मोबाइल,
रोड, ट्रेन या बेस्ट की बस में,
ना देखा हो.
पर यहाँ तक की मुस्कराहट, और झल्लाहट,
कुछ घर का बना लगता ही नहीं.
बच्चा भी नयी मासूमियत के अदाए,
किसी दूध में मिलाने वाले पाउडर या-
चाकलेट के 'ऐड' से सीख रहा है.

मुझे बताया जा रहा है की मै अपनी बहन को,
होली-दिवाली क्या गिफ्ट दूँ.
अगर ये पहनू तो 'अमिताभ बच्चन' लगूंगा,
अगर वो खाऊंगा तो "युवराज सिंह".
अब जब रिसर्च होगी तब पता चलेगा कि,
"कपडे" आपके शहर के किसी दर्जी ने बनाये थे,
और दवा का क्या असर होता है आपकी
छाती पर, स्वाद पर, और सोच पर!
पर आप "जियो जी भर के"

कभी कभी नहीं समझता की,
बिना यूरिया के गेहू-धान कहाँ पैदा किया गया है.
किस ओर्गानिक फार्म में!
फिर सोचता हूँ,
रेलवे पटरी के किनारे वाले खेत से तो नहीं ही आया होगा.
पर "ये सोच" भी शायद उधार की है.
इसे पाल्यूशन फ्री "पेंट" से सदियो तक,
अंदरूनी सोच को ढकने के काबिल बनाया गया है,
यह भी मुझे बताया गया है!

वैसे तो सब जानकारियाँ मुफ्त है गूगल पर,
ज्ञान के लिए एक आभासी गुरु बैठा है वहा.
साइड के कालम में 'ऐड वर्ड' का छूरा लिए.
चुपके से जो आपके अवचेतन मन के अंगूठे  को
बिना आपसे दक्षिणा मागे काट लेगा.
फिर दांत निपोर के कहेगा: 'नो फ्री मील्स'.

"डिंग डांग: आप मेरे ब्लाग पर आ रहे प्रचार पर क्लिक करें!
आप जीत सकते हैं एक.........
आफर सिर्फ आज के लिए, नियम शर्ते लागू"
पता चला आपको क्या!
ऐसे ही चुपके से आपकी चपातियो और पूजाओ में-
विज्ञापन की सोच घुसा दी जाती है,
बिना "डिंग डांग" किये!

चुनाव में तो पहले से ही प्रचार वैद्य था.
'हमारे' दूरदर्शी नेता!
१२१ करोड़ के घर तो जा नहीं सकते.
गए भी तो क्या मुह ले के जाएँ,
पांच-पांच साल करके ६५ साल होने को आये है.
जुगत लगानी होगी.

जैसे की सिगरेट-दारू की कम्पनी बहादुरी का इनाम देकर,
अपने काली करतूतो को ढकना चाहती है.
ऋषि मुनि को भी विज्ञापन की जरुरत है.
उनके लिए परोक्ष रणनीति है.
अब भगवान् को चढाने के लिए 'मिनरल वाटर' में भरा-
गंगा का पानी हरिद्वार से लिया है या कानपूर से.
फर्क तो पड़ता है न भाई!

इस मोह-माया से निकालने के लिए,
तपस्या करने को हिमालय पर भी जगह नहीं है,
वहां भी शायद कोई बुद्धिमान देवता,
अपना बैनर लगा दे, किसी उर्वशी-मेनका को ले कर.
स्वर्ग जाइये, साथ में एक इंट्री फ्री-कॉम्बो आफर.
कम से कम तपस्या के वर्ष,
अगर इस साल व्रत शुरू करते हैं तो!

विज्ञापन का कोकीन मिला है हर चीज़ में.
सब पर एक खुमार सा छाया है,
अब वो माफिया सिर्फ टी वी के भरोसे नहीं है,
नए नए माध्यम तलाश कर रहा है,
आपके खून में घुल जाने के लिए,
लत लगा कर असहाय बनाने के लिए.

एडियाँ घिसने पर आपको भी मजबूर कर दिया है,
देखिये न, आपका दिल हमेशा 'मोर' मागता है!!
गौर से सुनिए.


Sunday, February 19, 2012

इंडिया अगेंस्ट करप्शन!


जब सुबह के चार बजेंगे,
काली निशा का चर्म होगा,
काफी लोग सो रहे होगे,
अँधेरे से सामंजस्य बिठा के या,
हताश हो कर.
और काफी लोग जाग भी रहे होगे,
शायद वो पूरी रात जगे होंगे.
अपने बच्चे को छाती से चिपकाये.
भूखे पेट नीद नहीं आती है ना.

कि तभी एक घर में अलार्म बजेगा.
जिन लोगो को सोने कि आदत पड़ गई है,
वो कसमसा के फिर से रजाई ओढ़ लेंगे.
बाकि लोग भगवान भास्कर के आने कि तैयारी करेंगे.

फिर १०-१० मिनट पर अलार्म बजने शुरू हो जायेंगे.
मोहल्ले के कई घरो से,
कुल ३०-४० प्रतिशत लोग उठ गए हैं अब तक.
करीब पांच बजे कई गाँव, कस्बे, और शहरो से,
अलार्म, घंटे-घड़ियालो, और अजानो कि आवाजे आने लगी.

पूरा वातावर्ण गुंजायमान हो उठा!
ये लो भगवन धीरे धीरे मुस्कुराते हुए चले आ रहे हैं,
लाल मुह लिए. अँधेरे पर बहुत गुस्सा है!
होना तो यही था, आज २१ दिसंबर था,
तो रात को लगा कि मै हमेशा राज करुँगी.

अँधेरा अपना जीर्ण शीर्ण वस्त्र संभाले,
घरो के कोने, ढके नाली नाबदान में में जा के,
फिर मौके की तलाश में छिप गया.

जो भूखे थे रात भर,
उनमे से कुछ मंदिर के बाहर जा के बैठ गए,
और कुछ गन्दी सड़के इत्यादि साफ़ करने लगे,
सामन ढोने लगे,
खाने को दोनों को ही मिलेगा!
बस कुछ लोगो को नहीं पता चल पायेगा कि,
रोटी कमाने के और क्या तरीके हैं.

अँधेरे का फायदा उठा कर कुछ चोर उच्चक्के,
मोहल्ले से सामान चुरा लिए,
काफी सारा ठाकुर साहब की हवेली में,
और दूसरे गाँव पहुचा चुके थे,
और थोडा बहुत अभी ठिकाने लगाना बाकी था.
पंडित जी ने देखा.
पर चूकी वो अभी अभी सरयू से नहा के आ रहे थे,
और मंदिर जाने को भी देर हो रही थी,
तो कुछ बोले नहीं,
चुपचाप निकल गए!

पर बुधया चौकीदार का छोटा बच्चा,
जिसकी पतंग कल नीम के पेड़ में अटक गई थी,
बिना मुह धोये लेने निकला.
उसको पता था कि,
जो स्कूटर ले के कुछ लोग जा रहे हैं,
वो बिल्डिंग में रहने वाले इंजिनियर साहब का है,
जिसे वो किसी को छूने नहीं दिए हैं कई सालो से.
पिछले साल भी,
जब उसकी बहन बीमार थी,
और डाक्टर के पास ले जाना था,
तब भी नहीं दी थी,
बुधया अपने कंधे पर बिठा के ले गया था.

देखा तो लगा चिल्लाने 'अन्ना हजारे' कि तरह.
चोर! चोर ! चोर!!

और मोहल्ले के जोशीले नौजवानों को बुला लिया,
और फिर जो सुताई हुयी है चोरो की-
पूछो मत!
जिसके हाथ में जो आया, उसी से ले दना दन!!

बहुत सारे लोग तो ये भी कहने लगे कि,
सारा सामान निकालेंगे,
ठाकुर साहब के घर की तलाशी होगी.
बगल के गाँव से भी लायेंगे.
खैर छोड़ो ये सब बातें!!

इतना सब होने के बाद भी,
अभी भी जो लोग सो रहे हैं,
उन्हें नहीं मालूम है की,
उनकी खटिया के सिराहने,
एक कुत्ता पेशाब कर के जा रहा है.

Friday, January 27, 2012

आशाओं के दीप.

आशाओ के दीप जला चल!
कहाँ भास्कर भारत का, तोड़े अंधियारे के बादल! 

फैला दे उजाले का मंगल,
आशाओ के दीप...........

घने तिमिर जीवन में अब,
आशा के दीप जलना है,
युवा शक्ति के भटके मन को,
विजय द्वार दिखलाना है.

बाधाएँ अभिकारक है, तू, उमड़ घुमड़ के चलता चल! 

फैलता जा जीवन पल पल,
आशाओ के दीप जला चल!

पंथ पंथ चिल्लाने से क्या,
कहीं पंथ मिल जाता है?
हाय! किनारे बैठ सोचने से,
क्या मोती आता है?

डूब और गहरे में जा कर, यहाँ का उथला है जल!

स्वेद की बूदे देंगी हल, 
आशाओ के दीप...........

प्रान्त और भाषा से या फिर,
फर्क कहाँ पड़ता है वेश का,
टुकडे टुकड़ो में बटकर के
भला हुआ है कब स्वदेश का,

जाति-धर्म के झगड़े सारे, राष्ट्र हितो को रहे निगल!

सबके जख्मो पर मलहम मल,
आशाओ के दीप......

सबका हिस्सा है विकास में,
जैसे सूरज के प्रकाश में,
निर्धन को भी रोटी कपड़ा-
दिशा यही हो हर प्रयास में.

हर घर में चूल्हा जला नहीं, तो व्यर्थ परिश्रम है केवल!

सच्चे श्रम को तू आज निकल,
आशाओ के दीप......

Thursday, January 26, 2012

चला हो, दिया पूरा हो!


अनिहार बहुत बढ़ गईल, चला हो, दिया पूरा हो!  (अनिहार: अंधेरा)

बर्थ-डे मनय, स्कूल खरतिन बजट नाही,
महगाई कुल छोरि लियेय, कौड़ी बचत नाही.

काव कही हम रोज़गार के कहानिया.
हमरे इहा खुलल बाए, जाति के दुकानिया.

खाए बिना मरै जमूरा हो, चला कि दिया पूरा हो!

घोड़ावा कि नाई भागत, सगरा जमनवा,
ज्ञान-विज्ञान पढ़य, सगरा जमनवा,

हम घुरचालि रही, कुववा म अपने,
दुरगुड निहार रही, गौवा म अपने.

हमार प्रांत बन गईल घूरा हो, चला! अब तो दिया पूरा हो!!

कवन कम बाय, हियाँ के ज़मीनिया,
कहें छोड़ी छोड़ी भागी, आपन पुरनिया,

यहीं जमेक चाही सबके पौवा,
'रालेगाओं' बन सकै हमारौ गौवा,

यहीं संग्राम करो पूरा हो, चिन्गी जलाओ, दिया पूरा हो!

किनकर्तव्या रहे चली ना कमवा,
घर मा बैठी कय,  बदले ना गउवा.

आवा, तनी तनी करा हो जतनवा,
कौनो फल मिलत नाहि, बिना सीचे तनवा.

मसीहा के राह देखब छोड़ा हो!
आपन खाब,अपुनै, करक परे पूरा हो, खुशी से दिया पूरा हो.

लाइफ इन लोकल: रिटर्न ट्रेन

http://www.desiprimeminister.com
सूरज का कम हुआ ताप है, 
उतर गया आज का भी श्राप  है.

कुछ को जल्दी, कुछ को कभी नही!
शाम की अस्मिता पर विवाद है.
  
कभी उड़ जाए, कभी अड जाए,
यही वक्त का त्रास है.
  
दौड़ते, बेचते, झगड़ते, उंघते -
लोगों को अपना घर याद है.

कोई गुनगुना है और कोई उबलता है,
पर सबके अंदर भाप है.

मिमियाना, घिघियाना बंद हो गया है,
समझौते जैसे हालात है.
  
देख रहे खिड़की-दरवाजो से दुबके,
इस भीड़ मे हर दर्द शांत है.
  
बेचता है मीठी गोलियाँ, नन्हे हाथो से,
क्या इसका भी कोई बाप है?
  
बहुत सारी को रोका गया,
उस ट्रेक पर दो-चार फास्ट है.

एक जैसे डिब्बो को कई रंग मे क्यो रंगा?
'इंसान' ही इसका जवाब है.

कौतूहल से बैठी देख रही जनता,
कुछ मनचलो का राज है.

आए थे अपनी मर्ज़ी से, पर अब,
निकालने को बेताब है.

मिला है सबको डब्बा एक जैसा.
कहीं परिहास है, तो कहीं विषाद है.

अभी 'आज' ख़त्म भी नही हुआ,
शुरू कल का हिसाब है.

फिर लौट के आएँगे सजधज कर,
जिंदगी के लंबे चौड़े ख्वाब है.

Wednesday, January 25, 2012

स्लम: Slum


कुछ टूटे फूटे मकां,
किसी के लिए घर.
किसी के लिए स्लम.

प्लास्टिक की छते,
प्लास्टिक से पटी नालिया,
पर जीवंत चेहरे.

दुःख, दर्द, हसी, ख़ुशी, समेटे.
हर भाव साफ़ साफ़ दिखाते.

उन्ही झोपड़ियो के बीच,
मंदिर है,
नायी की दूकान है,
समोसे वाला, अखबार वाला.
सब है, उसी छोटी सी जगह में.

अब वहा नई दुनिया की-
सबसे ऊची ईमारत बनेगी.

सब पर बुलडोजर चल गया.

अब नहीं दिखाती माये,
कतार लगाये,
बच्चो के स्कूल से -
छूटने के इन्तजार में.
बगल का स्कूल भी ढह गया.
वहां इंटर नेशनल स्कूल खुलेगा.

जगह वही है.
किसी के लिए स्लम,
किसी के लिए घर,
किसी के लिए फ़्लैट.

Tuesday, January 24, 2012

पीपल का पेड! Peepal


बहुत हरा भरा सा था,
कई पतझड़ो से खड़ा था. 


हाथियो ने बहुत खाया. 
राही को भी दिया छाया.


सावन की कजरी का झूला. 
कई चिडियो का घोसला. 


मिन्नतें मागते थे लोग, 
डोरा बंधाते थे लोग. 


सिन्दूर और नारियल चढ़ता. 
किसी का भूत भी उतरता. 


डामर-कंकड़ की चढ़ गया भेट. 
रास्ते में था एक पीपल का पेड!

Friday, January 13, 2012

लाइफ इन लोकल - अप ट्रेन: Life in Local - Up Train

क्या ये सुबह नई शुरुआत है,
या फिर कल का बस आज से मिलाप है.
आभार: गूगल 


मुह और आँखे लाल है.
सूरज के लिए भी अभी प्रात है.


निकले हैं किसी उधेड़ बुन में.
पेट की चिंता भी साथ है.


सबको बराबर नहीं मिलता,
वक्त में भी नहीं साम्यवाद है


नीली पीली बत्तियों वाले स्टेशन.
पुराने और नए चेहरोँ की पांत है.

आठ बजे कुछ के लिए भोर या दोपहर,
कुछ के लिए रात है.


प्लेटफोर्म कई सरे इन्सानो और
कुछ श्वानो की खाट है.


चिल्लाते, धकियाते, थूकते यहाँ वहां,
भारतीयता यहाँ पर आजाद है.


सिर्फ संघर्ष है, सीट का,
बड़ा ही धर्म-निरपेक्ष प्रयास है.


कुछ को सीट मिली, बाकी -
के मन में समाजवाद है.


सिग्नल के इंतज़ार में ऊब गई-
जनता बदहवास है, बदमिजाज है.


कुलबुलाती भुनभुनाती भीड़,
खाती समोसा, प्रदूषण और अखबार है.


बच बच के चलती ट्रेन, झुग्गी-झोपड़ियो से,
महानगर आबाद है.


घिसटती हुई, रेंगती हुई, भागती हुई,
हर ट्रेन का अपना भाग्य है.


किसी का स्टेशन आ गया,
कोई जोह रहा वाट है.