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Monday, February 13, 2012

प्रेम के दो युगल हंस


प्रेम के दो युगल हंस,
बस लिए वादो के अंश,

नये प्यार की उमंग,
कर लिए दुनिया से जंग.

ना सुना किसी का सत्संग,
खड़े देख रहे माँ बाप दंग.

मिला दाल रोटी का दंश,
तब हुई मोह माया भंग.

आकर बने फिर घर अंग,
देख रहे हैं टी वी संग संग.

अब महगाई से नहीं रंज
परिवार धन्य! बस चादर तंग!

Sunday, January 29, 2012

‘हुस्न के जलवो से फिर’

‘हुस्न के जलवो से फिर’ उसकी कलम मजबूर है,
साभार: गूगल 
‘घर सजाने’ के लिए लिखता है, जो मशहूर है.

धर्म ग्रंथो और बुतो को, बेफिक्र नंगा कर दिया,
‘ब्रिटेन की नागरिकता’ पाने का यही दस्तूर है.

झूम जाती महफिले, की भाव ऐसे भर दिए,
शायरी लिखता गजब है, यदि ‘बियर’, ‘तंदूर’ है.

‘अलख की आग’ लगा, सत्ता समूची उलट दी,
इस बार मिया ‘ग़ालिब’ को ‘पद्म श्री’ मंजूर है.

‘मटेरियल’ के होड़ में, बस्तिया गन्दी छान दी,
एहतियातन, ‘बिसलरी’ से धो के खाते अंगूर है.

शान में चोखे लिखे, बजते हैं ‘छब्बीस जनवरी’ पर,
उससे पूछो ‘हश्र क्या’ जिसका मिटा सिन्दूर है.

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मै अगर ये कहू की ये रचना ‘अदम’ साहब को श्रद्धांजलि के लिए है, तो छोटे मुह बड़ी बात होगी.
इसलिए मै ये कहोंगा की उनको एकलव्य की तरह दिल में मूरत बना कर पूजते हुए कुछ लिख दिया.

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For my friends who are not comfortable with Hindi, an attempt to convey the meaning:

1. 'because of beauty' his pen is compelled,
    'to decorate his house' he write, what is famous.

2. He tainted the image of religious books and god statues
     its easier way to get citizenship of England.

3. His poems create a sensation in gatherings,
    He write beautifully when Bear and chickens are served.

4. He changed the leadership with his poems
    he must be nominated to 'padm shri' award this year.

5. In search of material, he visited lots of slums,
    As a precaution, he eat grapes washed in 'Bisleri'

6. Written patriotic song, used to run on republic day,
    But what about widows, of those solders.

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In memory of great Hindi poet 'Adam Gondavi' who just died on
18th of dec 2011. He was common man's poet and lived like that.



Wednesday, January 25, 2012

क्या पकिस्तान हमारा भाई है?

वादे करते जाता है,
मुर्गा-रोटी खाता है,
ट्रेने भी चलवाता है. 

पर एक भाई दूसरे के 
हमेशा काम आता है.
इसलिए मुझको है शक!
वो भाई नहीं है.
उसका कुछ और है हक.

रिश्ते की बात करके जाते ही,
कुछ आतिशबाजी करता है. 
अब गावो की बारातो में भी,
तो इंसान जख्मी होता हैं. 

आजादी से है ये विवाद.
क्या पकिस्तान हमारा भाई है,
या है वो हमारा दामाद!

Friday, January 20, 2012

मेरी धरती की परिक्रमा: Dharti ki parikrama

Courtesy: Yahoo!
सुबह शून्य मस्तिष्क से साथ जगा. बीच में किसी भी प्रकार की मानवीय भावनाए आये बिना बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. मैंने ये महसूस किया है कि जहाँ आप ये सोचने लगे, कि आखिर हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, क्या मैंने इसी लिए इतनी पढाई की थी, या फिर भारत में मजदूर कानून की विडम्बना, तो फिर आपको बिस्तर साम्यवाद के सम्मोहन कि तरह जकड लेगा, जहाँ ये यह जानते हुए भी कि विकास की प्रक्रिया धीमे पड़ गई है, त्याग नहीं पाते. खैर, सुबह की गरिमा बनाये रखते हुए मैंने अपने आप को अच्छी तरह से धोया, पोछा, और भगवान् के सामने, आज तो कलयुग में सत्य नारायण की व्रत कथा का अध्यात्म सुन के ही रहूँगा, का मनोभाव लिए मस्तक टेक दिए. किन्तु तभी घडी ने न जाने कैसे माया से 8 बजा दिए, और मैंने दिल से उतर कर पेट की सोचते हुए, हमारे नेताओ की तरह देश सेवा का मोह त्यागकर, अपने आपको भगवत-विरक्त कर लिया. 

एक नजर घर की स्थिति पर डाला तो जापान में हाल में आये भूकंप की याद आ गयी और मन भारी हो गया. किसी प्रकार अपने दिल को, पूरी गन्दगी और अव्यवस्था के लिए पत्नी और काम वाली बाई को दोषी ठहराने में कमियाब रहा. हालाकि मुह से कहने कि कुछ हिम्मत नहीं हुई. क्योन्कि इससे एक को आमेरिका कि तरह आपके ऊपर आक्रमण करने का बहाना मिल जाता है, और दूसरी को, सरकार को बहार से समर्थन देते हुए राजनीतिक दल की तरह, छोड़ के चले जाने का मौका. तो मै भी एक जिम्मेवार प्रधानमंत्री की तरह, सरकार चलाने के बोझ के नीचे अपने आप को दबा हुआ मानकर, अपनी 'किंकर्तव्य विमूढ़' स्थिति को उजागर न होते हुए, ये वक्तव्य दे डाला की 'पूरे मंत्रिमंडल पर मै चौबीसो घंटे नजर नहीं रख सकता'. 

नाश्ते के लिए फीका दूध-कार्नफ्लेक्स देखते ही माँ के हाथो के आलू के पराठे याद आ गए. वो इलाहाबाद में नाज-नखरो के साथ सर्दी में 10 बजे तक, 'राहुल जी' की तरह किसी गरीब के घर जाने जैसा, एहसान करते हुए उठाना. फिर मीडिया को एक-एक कौर दिखाते हुए खाना. शायद उन्ही लाड प्यार के कारण 'बाबा रामदेव' की तरह अब जीवन बहुत कठिन लग रहा है. महगाई देखते हुए आज अंगूर या सेब की जगह केले मिले. तो मैंने उसे घर में ही खा लेना उचित समझा, क्योंकि केलो के ऊपर आ रहे तमाम फतहो के बाद ऐसा लगाने लगा है कि, अगर पुरुष भी अपनी रूचि केलो में सार्वजनिक करने लगे, भले ही खाने के लिए, तो उन पर कुछ टीका टिपण्णी या फ़तवा न आ जाये. 

एक सॉफ्टवेर इंजीनियर होने के बाद भी मै भारतीय मूल्यों का पूरा ध्यान रखता हूँ. यदि कोई छींक दे, या बिल्ली रास्ता काट दे, तो ऐसी सब विषम परिस्थितियो में अपनी अपनी यात्रा थोड़ी देर के लिए रोक देता हूँ. आज भी मै जैसे ही निकला 'लिफ्ट की लोबी' में किसी ने छीका. मन तो यही हुआ की 'आजाद' की तरह उसकी खोपड़ी पत्थर से खोल दू, किन्तु किसी माडल की तरह बस उसको तिरछी निगाहो से देख कर रह गया. वापस घर पर जा के, 'करण थापर' की तरह बीवी की तमाम बातो में से प्रश्न ढूंढ कर उत्तर देने से अच्छा, शेअर मार्केट में पैसा लगाने वालो की तरह, भाग्य पर भरोसा करना उचित समझा. 

सुबह बाइक की भी स्थिति मेरे जैसी ही थी. अंगड़ाइयों पर अंगडाइया, किन्तु स्टार्ट होने का नाम नहीं. उसकी हेड-लाईट मेरी तरफ एक याचन की दृष्टि से देख रही थी, कि भाई साहब इस महीने तो सर्विसिंग करा दो, किन्तु मै भी एक चतुर उद्योग पति की तरह बोनस देने की तारीख लगातार बढ़ाये जा रहा था. आज बाइक ने स्तीफा देने की ठान ली, फिर तमाम कोशिशो के बाद भी स्टार्ट नहीं हुयी और, टीम लीड की तरह  खुद ही कोडिंग का जिम्मा उठाते हुए, मै अपने पैरो पर स्टेशन की तरफ रवाना हुआ. वहां गल्ली में कुत्तो को सोया हुआ देख कर ईर्षा होने लगी. रात भर किसी 'पार्टी एनीमल' की तरह हर बाइक और रिक्शे के पीछे दौड़ने वाले, और सुबह 'हैंग ओवर' से जूझते हुए सोते रहते हैं.  

हमारे इलाके के रिक्शे वाले एक दम PHD धारियो की तरह अपनी मनमर्जी का काम करते है, और लाख कोशिशो के बाद भी अपनी ही महारत वाले रस्ते पर चलते हैं चाहे वहां जाने वाला कोई भी न हो. जब भारतीय मध्यक्रम बल्लेबाजो की तरह कोई भी रिक्शा रुकता हुआ नहीं दिखा, तो मन में छींक वाली अवधारणा को आंकड़ो की मजबूती मिल गई. एक रिक्शे वाला रुका और रुक के 2 मिनट तक सोच विचार करके के बाद, वारेन बफेट के निवेशो की तरह इन्तजार करके, लम्बी दूरी वाले यात्री के लिए रुकना उचित समझा.  एक 'फंडिंग' न पा सकने वाले नए उद्यमी 'Enterprenuer' की तरह मै भी गर्दन नीचे करके आगे बढ़ता रहा.  

एक सज्जन को मै स्टेशन तक लिफ्ट दिया करता था. आज किसी और से लिफ्ट ले के मुझे क्रास करते हुए ऐसे मनोभाव दिखा रहे थे कि, जैसे वो कोई कॉलेज जाने वाली छात्रा हो और बाइक का ब्रेक मारने के बाद उनके उभारो की  छुआन से जो आनंद रोज़ मुझे आता था, वो आज किसी और को देने वाले है. मैंने भी ऐसे भाव दिखाए कि मुझे भी किसी मुस्टंडे में कोई रूचि नहीं है, और बेटा कल से लिफ्ट मागना, 'एक्सीलेरेटर' दबा के अपनी धुँआ फेकने वाली बाइक से मुह काला न कर दिया तो कहना. 


जिस प्रकार गणेश भगवान् ने अपने माँ बाप के चारो ओर चक्कर लगाया था, उसी प्रकार, घर से ऑफिस का चक्कर भी मेरे लिए धरती की परिक्रमा है. मुंबई की लोकल, इतनी भीड़ में उनकी सवारी 'चूहे' की तरह नजर आती है, और बहुत बार वैसी ही चलती है. किन्तु जैसे चूहे के सिवाय गणपति किसी और चीज़ पर सवारी नहीं कर सकते, मेरे जैसे तमाम लोग, न चाहते हुए भी रेलवे लाइन की सुबह-सुबह के मन को विचलित कर देने वाले वातावरण से रूबरू होना ही पड़ता है. स्थिति ऐसी है कि, अगर आपको 'मिड-डे' पेपर की अश्लील चित्रों का आनंद उठाना है तो उसमे छपी फालतू की ख़बरें तो पढ़नी ही पड़ेंगी. इन्ही उधेड़ बुन में, कभी लिफ्ट और रिक्शे की आस में इधर उधर देखते हुए, स्टेशन तक पंहुचा. किन्तु इतनी जद्दोजहद जिस ट्रेन के लिए की थी वो ट्रेन, प्रथम प्रेम, की तरह धोका देके जा चुकी थी, और अगली ट्रेन, 'बालिका वधू' में ब्रेक के बाद वाले भाग की तरह, 15 मिनट बाद थी. 

Wednesday, January 18, 2012

सीधा लड़का: Seedha Ladaka

मेरे बचपन के मित्र के बड़े भैया पढ़ने में बड़े तेज़ थे, और पूरे मोहल्ले में अपनी आज्ञाकारिता और गंभीरता के लिए प्रसिद्ध थे. सभी माएं अपने बच्चो से कहती थी की कितना 'सीधा लड़का' है. माँ बाप की हर बात मानता है. वो हम लोगो से करीब 5 साल बड़े थे तो हमारे लिए उनका व्यक्तित्व एक मिसाल था, और जब भी हमारी बदमाशियो के कारण खिचाई होती थी तो उनका उदहारण सामने जरूर लाया जाता था. मेधावी तो थे ही, एक बार में ही रूरकी विश्वविद्यालय में इन्जिनेअरिंग में दाखिला मिल गया. वहा से पास होते ही नौकरी भी लग गई.

किन्तु उनके पिताजी को IAS से बड़ा ही सम्मोहन था और वो अपने लडके को किसी जिले का मालिक देखन चाहते थे. इसलिए उसे नौकरी से वापस बुला लिया और IAS का भी इम्तिहान देने को कहा. भैया इतने आज्ञाकारी थे कि नौकरी छोड़ के आ गए. उन्होंने फिर अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए  IAS बन गए. अब क्या था! उनके पिताजी जी कि ख़ुशी का ठिकाना न था. हर जगह मिठाई बाटते फिरे. आखिर IAS का दहेज़ भी तो हमारे समाज में सबसे ज्यादा होता है. 


दिन बीतते गए और तरह तरह के संपन्न रिश्ते आते रहे. किन्तु हमारे भैया किसी न किसी तरह से उसे मना कर देते थे. एक दिन मेरे मित्र के पिताजी सुबह सुबह ही चिल्ला रहे थे. थोड़ी देर बाद लोगो को पता चला की भैया अपनी ट्रेनिंग पूरी कर के आ गए है, और साथ में बहू और 3 साल का एक बच्चा भी लाये है. 
जैसे तैसे चाचा जी को समझाया गया. बहू अच्छी थी उसने घर में सबको खुश रक्खा.


अब जब कभी भी हमारे मोहल्ले में कोई प्रेम प्रलाप होता है तो घर वाले उसका विरोध नहीं करते. बल्कि भैया वाली बात की उलाहना देते हैं और कहते हैं की जहाँ आप लोग की मर्जी शादी कर लेना मगर इस तरह अचानक से बहू और बच्चा ला के 'हार्ट अटैक' मत देना. 
बहुत संपन्न होने के बाद भी चाचा जी को दहेज़ न मिल पाने की खलिश आज भी कभी कभी सताती है.

मेरी विरार लोकल से यात्रा: Journey on Virar Local

अभी हाल में एक फिल्म आई थी, 'वंस अपान ए टाइम इन मुंबई'. इसमे एक धाँसू डायलोग था 'हिम्मत बताने की नहीं दिखने की चीज़ होती है.' मै जब भी दादर से विरार ट्रेन में चढ़ने का विचार करता हूँ, न चाहते हुए भी अपने आपको 'इमरान हाश्मी' के दर्जे की बहादुरी के लिए तैयार करना पड़ता है. आज फिर मै वीरता के कई कीर्तिमान स्थापित करते हुए, अपनी भीड़ से डरने की कमजोरी से उभरते हुए, विरार लोकल पर चढ़ा. कमर, कूल्हो, छाती, मुह, सब जगह मानवीय दबावो को सहता हुआ, घिसटते, पिसते, एक कोने में जा के दुबक गया.

Courtesy: Frontlineonnet.com 

वही पर कुछ लोग मृत्यु के पश्चात के जीवन की स्थिति पर चर्चा कर रहे थे. मै अपनी जीर्ण शीर्ण अवस्था में उनकी चर्चा में ऐसा विह्वल हो गया की अपने जिन्दा होने का एहसास तब पता चला जब ट्रेन बांद्रा पहुचने वाली थी, और नाले की तीक्ष्ण गंध, जिसे महिम वासी 'मीठी नदी' कह के बुलाते हैं, नथुनो को भेदती हुयी 'कापचिनो काफी' जैसा झटका नहीं दे दी.

जागने के बाद मैंने ध्यान दिया की काफी सारे लोग आज कल कान में चौबीसो घंटे हेडफोन लगाये रहते हैं, और सर को तरह तरह से मटकाते रहते हैं. मुझे तो ऐसा लगता है की वास्तविक संकट को नकारने के लिए जैसे शुतुरमुर्ग अपना सर जमीन में डाल देता है, वैसे ही ये लोग आज कल के 'श्रद्धा और विश्वास' से परिपूर्ण गाने सुनते रहते हैं. कुछ लोग घडी घडी फेसबुक पर अपनी स्थिति का अपडेट डालते रहते हैं, मानो धरती की कक्षा छोड़ के किसी उपग्रह की परिधि में जा रहे हो, और 'नासा' को ये लगातार बता रहे हो कि अब ओजोन की परत जा चुकी है, और मेरा अक्षांश और देशांतर फलाना-फलाना है.

बांद्रा से एक सज्जन 'आज भारत को आजाद कर देंगे' के मनोभाव लेके चढ़े और सबको धकियाने लगे, किन्तु जनता जनार्दन ने अपना भारी मत गलियोँ और जवाबी धक्के के रूप में देते हुए, उन्हें भारतीय बल्लेबाजो की तरह 'बैक फुट' पर ला दिया. इसके बाद तो उन्होने अपना शरीर नव विवाहिता की तरह जनता को समर्पित कर दिया.

परन्तु कुछ लोग हमारे भारतीय नेताओं की तरह, धैर्य दिखाते हुए, बहलाते फुसलाते हुए, अपनी उम्र का हवाला देते हुए आगे बढ़ते जाते हैं, फिर तीन की सीट पर चौथे स्थान पर लटक जाते हैं. उनकी स्थिति उस त्रिशंकु की तरह है, जिसे खड़े रहने में भी गुरेज है और चूँकि पूरी सीट मिली नहीं है तो बाकि लोगो से इर्षा भी है. ऐसे लोग और कुछ खड़े लोगो के मन में लगातार समाजवाद और साम्यवाद पनपता रहता है और सारी स्थिति का जिम्मेवार ब्रह्मण या मनु वादी सोच को ठहरा कर कर अति आबादी में अपने सहयोग को झुठलाना चाहते हैं. किन्तु सीट पा चुके लोग भी किसी उद्योगपति की तरह अपने खर्च किये हुए पैसे हो पूरी तरह से निचोड़ लेना चाहते हैं, और अपने स्टेशन तक पूरी तरह से 'सांसद फंड' की तरह सीट का इस्तेमाल अपनी मर्जी के अनुसार करके किसी परिचित को दे कर चले जाते हैं.

इतने में किसी ने अपने जेब में हाथ डाला और चिल्लाया मेरा मोबाइल यहीं कहीं गिर गया है. फिर अपने आप को 'पायरेट्स आफ कैरेबियन' समझते हुए पूरे डब्बे रूपी समुद्र को खंगाल डाला. तभी किसी ने अन्ना हजारे कि तरह उसे अपने गिरेबान में फिर से झांकने कि सलाह दी, और हमारी सरकार कि गलतियो कि तरह ही मोबाइल भी उसके बैग में मिल गया. फिर किसी सरकारी प्रवक्ता जैसे दांत निपोरते हुए, इससे पहले कि कोई अपने सब्र का बांध तोड़ दे और चप्पले रसीद करे, एक निर्लज्ज सा अर्थहीन 'सारी' बोल दिया.

मेरा भी स्टेशन आया, और मै लखनवी नजाकत के साथ उतरने ही वाला था कि, अमेरिका जैसे 'ग्लोबल वार्मिग' को नकारता है, लोगो को मेरा अस्तित्व दिखाई ही नहीं पड़ा, मानो मै कोई 'एक कोशकीय' जीव हूँ. लोगो ने मुझे फिर से ला के उसी जगह खड़ा कर दिया. मेरी स्थिति डिम्ब से मिलन को व्याकुल उस शुक्राणु कि तरह थी जिसे 'कंडोम' जैसी एक पारदर्शी झिल्ली से रोक लिया हो.

तमाम कोशिशो के बाद भी मै इलाहाबाद विश्वविध्यालय के छात्रो कि तरह आईएस परीक्षा निकालने में नाकाम रहा. तब किसी सहृदय व्यक्ति ने सिफारिश के जरिये, मुझे बाहर फेकने का ख़ुफ़िया प्लान बनाया. अगले स्टेशन पर उन लोगो ने मुझे बाहर फेका और फिर मेरे बैग को, जैसे हमने पहले अंग्रेजो को बाहर निकला और फिर 'बेटन दंपत्ति' को खिला पिला के तृप्त करके. ट्रेन से फेके जाने के बाद मै भी ब्रिटिश राज कि तरह अपने पैरो पर खड़ा नहीं रह पाया और धडाम से गिरा. लोगो ने एक छड मेरी तरफ, आस्था चैनल कि तरह डाला, फिर 'बिग बॉस' सीरियल कि तरह महिला कोच की तरफ देखने लगे.

Sunday, January 15, 2012

रेलवे पटरी पर संडास है: Railway patari par

रेलवे पटरी पर संडास है,
और जिंदगी झकास है.

रेल में बम फूटा, गोलियां चली,
पर यहाँ की 'लाइफ' बिंदास है.

हाथ में मोबाइल, कान में हेडफ़ोन,
समझता अपने को ख़ास है.

घडी घडी स्कोर देखते हैं,
सचिन की सेंचुरी पास है.

हर जगह बहू सताई जा रही है,
हर 'सीरियल' में सास है.

मरना, खपना, या 'एलियन',
मीडिया का च्वनप्राश है!

खुद खाए या बच्चो को खिलाये,
'बत्तीस रुपये की घास है.'

इस साल भी बारिश अच्छी करने का,
मौसम विभाग का प्रयास है.

जेल में रहे या संसद में,
दोनो ही अपना आवास है!