Wednesday, April 25, 2012

ओ बी ओ चित्र से काव्य प्रतियोगिता -13

रचना को ओ बी ओ की कविता प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार मिला है:

अनायास ही छीनते, धरती माँ का प्यार,
बालक बिन कैसा लगे, माता का श्रृंगार ?

पंछी का घर छिन गया, छिनी पथिक से छाँव,
चार पेड़ गर कट गए, समझो उजड़ा गाँव.

निज पालक के हाथ ही, सदा कटा यों पेड़,
ज्यों पाने को बोटियाँ, काटी घर की भेड़.

लालच का परिणाम ये, बाढ़ तेज झकझोर.
वन-विनाश-प्रभाव-ज्यों, सिंह बना नर खोर.

झाड़ फूंक होवै कहाँ, कैसे भागे भूत,
बरगद तो अब कट गया, कहाँ रहें "हरि-दूत"?

श्रद्धा का भण्डार था, डोरा बांधे कौम,
भर हाथी का पेट भी, कटा पीपरा मौन.

झूला भूला गाँव का, भूला कजरी गीत,
कंकरीट के शहर में, पेड़ नहीं, ना मीत.

 --राकेश त्रिपाठी 'बस्तिवी'

Friday, April 20, 2012

सपना

उनको भी नया सपना दिखाया जाये,
फिर मिट्टी में ही, उसको मिलाया जाये.
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पिछले वादों का जब भी, हवाला वो दें,
यों ही प्यार से, ठेंगा दिखाया जाये.
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क्या ताकत है, जज्बाती खयालातों में!
ये 'राखी के धागों' से, बताया जाये.
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जिन लोगों ने, देखा जिंदगी में ख़्वाब,
उन्हें रातों को भी अब जगाया जाये.
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आयी है मुबारक सी, घडी घर मेरे,
इक सपना जवाँ बेटे से बुनाया जाये.
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बे सर पैर की 'सच्ची' खयाली बातें,
हमको फिर से बच्चों सा बनाया जाये.
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लाखों सपने माँ की आँखों में बसने दो,
बेटी का चलो डोला उठाया जाये.
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दादी माँ के, 'वैसे ही रक्खे' हैं सब किस्से,
दिल से चुन के, पोते को सुनाया जाये.
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तेरी शख्शियत से इक है, सपना मुझ में,
काजल सा ये आँखों में, सजाया जाये.

OBO Chitra Se Kavya Ank -12


जान बचाने से पूर्व, क्या वो पूछे जात!
किस नदिया का जल पिया, कौन जबाँ में बात?

धर्म-भाषा-जात परे, एक भारत की नीव,
माँ मै ऐसे ही करूँ, कष्ट मुक्त हर जीव.

कहीं कोसने मात्र से, मिटा जगत में क्लेश,
ह्रदय द्रवित यदि दया से, हाथ बढ़ा 'राकेश'.

केवल वो सैनिक नहीं, वह भी बेटा-बाप,
सेवा की उम्दा रखी, दैहिक-नैतिक छाप.

बदन गला कश्मीर में, जला वो राजस्थान,
कुर्बानी की गंध से, महका हिन्दुस्तान.

खाकी वर्दी तन गयी, मिला आत्म विश्वास.
पूरी होगी कौम की, हर एक सुरक्षा आस.

सैनिक जैसा बल-ह्रदय, मांगे भारत देश,
तन-मन-धन अर्पित करो, विनती में 'राकेश'.

Friday, March 30, 2012

तरही मुशायरा २१ के हेतु

अकड़ में नरमी, अदा में गरमी, कभी हमारे सजन में आये, 
वफ़ा के सच्चे, जबाँ के जलवे, कभी किसी आचरन में आये.
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समा बंधा है, सुकूँ बहुत है, मगर वो वादा जहन में आये,
चलो लगायें फिर एक नश्तर, कि दर्द पिछला सहन में आये.
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उतार कोकुन, निकाल चश्मा, वो मेरे वातावरण में आये,
मली फिजा है, हमारे 'रु' में, हवा से सिहरन बदन में आये.
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ये नब्ज डूबी ही जा रही थी, कफ़न से ढकने, वो आये मुझको,
मेरे तबस्सुम का राज ये है, 'किसी तरह संवरण में आये'.
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यहाँ मचलती जो भूख हर दिन, नहीं है चर्चा किसी अधर पर,
चहकते प्यादे, सवरते रस्ते, वो आज-कल आचमन में आये.
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नहीं मयस्सर है साफ़ पोखर, हमें पिलाते हैं नारे-वादे,
मिला न पानी जो लान को तो, वो मुद्दतो में शिकन में आये,
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फिजां में घोले, हवा सियासी, वो लूटने क्यों अमन को आया?
जिया में कुरसी हिलोर खाती, कि 'राम' तो बस कथन में आये.
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नहीं कदर है, वो बात बेजा, लबों पे आये, जो वक्त पहले,
विचार जब निज चरित में आये, कथन तभी अनुकरण में आये.
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चबाये सूखी रोटी है अब वो, जमीर जिसका घुटन में आये.
अना की चादर उतार फेंके, मुहब्बतों के चलन में आये.
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भली सुनाये, प्रशस्ति पाए, उसी को दौलत उसी को शुहरत,
कवी जो बागी है आम जन का, बिना दवाई कफ़न में आये.
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फटेगी छाती, बहेगा लावा भरा है जनता के मन बदन में,
नहीं गयी है ये आह बेजा, शगुन के आंसू नयन में आये.
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गरीब बस्ती है छान मारी, जुगत लगाई 'मटेरियल' की,
मरा है 'बुधया' मुआवजे को, "शहर से कुत्ते" रुदन में आये.
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जबाँ हिलाई, कि ऐ खुदा हम, तड़प के भूखो लगे हैं मरने ,
लगा ये तेवर बगावती, वो सशस्त्र बल से दमन में आये.
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जमी तलाशी, कुआं बनाया, सुखन से पाये, तो चार घूँटें,
हमें सिखाएं, हुनर वो क्या है, पिता के जो अनुसरण में आये
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जमीर को लग गयी बिमारी, वो मार आये हैं भ्रूड कन्या,
बड़े सुशिक्षित जनाबे आली, परम्परा के वहन में आये.
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रसूल वालो कभी तो आओ, सड़क पे मेरे घरौंदे में भी,
दवा यहाँ है 'देशी गरल' की, जलन से तडपन सहन में आये.
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करे तपस्या अनेक वाइज, समझ न पायें कि राज क्या है,
महज खिला के गरीब को वो, कैसे दिवान-ए-सुखन में आये.

Monday, March 26, 2012

हमको बहुत लूटा गया

हमको बहुत लूटा गया,
वादा तेरा झूठा गया.

झगड़ा रहीम-औ-राम का,
पर, जान से चूजा गया.

दर पर, मुकम्मल उनके था,
बाहर गया, टूटा गया.

भारी कटौती खर्चो में,
मठ को बजट पूरा गया ,

मजलूम बन जाता खबर,
गर ऐड में ठूँसा गया. (ऐड = प्रचार/विज्ञापन/Advertisement)

उत्तम प्रगति के आंकड़े,
बस गाँव में, सूखा गया.

वादा सियासत का वही,
पर क्या अलग बूझा गया!!

है चोर, पर साबित नहीं,
दरसल, वही पूजा गया.

माझी, सयाना वो मगर,
मन से नहीं जूझा, गया.

वो कब मनाने आये थे?
हम से नहीं, रूठा गया.

चोटें तो दिल पर ही लगी,
खूं आँख से चूता गया.

जो चुप रहे, ढक आँख ले,
राजा ऐसा, ढूंढा गया.

पैसों से या फिर डंडों से,
सर जो उठा, सूता गया.

दारु बँटा करती यहाँ!
यह वोट भी, ठूँठा गया. (ठूँठ = NULL/VOID)

संन्यास ले, बैठा कहीं,
घर जाने का, बूता गया.

नव वर्ष ‘मंगल’ कैसे हो?
दिन आज भी रूखा गया.

खोजा “खुदा” वो ता-उमर!
आगे से इक भूखा गया.

पीछे रहा है ‘बस्तिवी’!
सर पर नहीं कूदा गया.

Wednesday, March 21, 2012

मैखाना है

ऐसा लगता है की मेरा यों अब गुजरा जमाना है,
बेगाना रुख किये 'साकी'! यहाँ तेरा मैखाना है.

फकीरों को कहाँ यारो कभी मिलता ठिकाना है,
बना था आशियाना, आज जो बिसरा मैखाना है!

कभी अपना बना ले पर कभी बेदर्द ठुकरा दे,
सयाना जाम साकी! और आवारा मैखाना है.

तेरी हर एक हंसी पर ही चहक कर के मचल जाना.
हमेशा हुस्न-ए-जलवो पर जहाँ हारा मैखाना है.

तेरी तस्वीर के बिन ही मै पीने आज बैठा हूँ,
ख़ुशी या गम हो जुर्माना मुझे मारा मैखाना है.
    
हमेशा ही परोसे जाम हर 'शीशे' में वो भर के, 
सरापा पीने के जज्बातों को प्यारा मैखाना है.

छलावे में कभी इन्सान से पाला नहीं पड़ता,
छिपाया है हकीकत से वो एक तारा मैखाना है.

बुढ़ापे में यही बेटों ने 'बस्तीवी' दिया ताना,
जवानी में लुटाया दोस्तों पे सारा मैखाना है.

Saturday, March 17, 2012

जिंदगी ले के चली

जिंदगी ले के चली, एक ऐसी डगर,
राह के उस पार, चलते हैं हम सफ़र. 

रात और दिन, मील के पत्थर जैसे हैं,
मोड़ बन जाते कभी, हैं चारों पहर.
  
फादना पड़ता है, दीवारें अनवरत,
ढूँढना चाहूँ मै, 'उसको' जब भी अगर.

शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर.

द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें,
बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर.

जिंदगी में लेने आता एक बार, पर-
बैठती हूँ रोज, 'बस्तीवी' सज संवर!

Wednesday, March 14, 2012

दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में

दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में,
वादों से गर्म दाल परोसी चुनाव में.
ढूंढे नहीं  मिला एक भी रहनुमा यहाँ,
सच कहने सुनने की हिम्मत रखे स्वभाव में.

तब्दीलियाँ है माँगते यों ही सुझाव में,
फिर भेज दी है मूरतियां डूबे गाव में,
दिल्ली में बैठ के समझेंगे वो बाढ़ को,
लाशें यहाँ दफ़न होने जाती है नाव में.

पूछा क्या रखोगे मुहब्बत के दाव में?
आ देख नमक लगा रक्खा है घाव में,
तुम हमको कभी, पत्थर मार देते तो,
लहरें बनाते सुन्दर दिल के तलाव में.

कोयला बना चमक कर हीरा दबाव में,
वीणा से सप्त सुर निकले तनाव में.
पौधे कभी वो छूते नहीं आसमान को,
पलते जो हैं किसी बड़े बरगद की छाँव में.    

माँ को सुकूँ है जब, बेटे खाते हैं चाव में.
उसको है दर्द, मुझे चुभते कांटे पाँव में.
घर ना बना सके गर 'राकेश' इस शहर, 
जी लेंगे माँ के आंचल की नर्म छाँव में.

'बागी' नहीं वो क्या होंगे, कविता के ठाव में?
जैसे बहेलिये कुछ, चिड़ियों के ताव में.
देखा कभी है कोयल, घर की मुडेर पर,  
शायर नहीं ठहरते, काव काव में. 



Saturday, March 10, 2012

माग मत अधिकार अपना

माग मत अधिकार अपना, ये अनैतिक कर्म है, 
ठेस लगती है हुकूमत का बहुत दिल नर्म है.
 
हक हमारा कुछ नहीं, पुरखे हमारे लापता,
हर तरक्की के लिए बस 'द्रष्टि उनकी' मर्म है. 

सैर को आये कभी जब समझ उपवन गाँव को, 
खेत सूखे देख कर गर्दन झुकी है, शर्म है. 

कह दिया गर 'भूख से हम मर रहे है ऐ खुदा!'
बोला गया तब सब्र और विश्वास रखना धर्म है. 

कट गए सद्दाम या लादेन, गद्दाफी सड़क पर,
तब समझ में आ गया खूं कौम का भी गर्म है!

लूट, हिंसा और लिप्सा से निकलए शेख जी,
भोर होने आ चली, काली निशा का चर्म है.

--------------- मध्य प्रदेश की सरकार की ख़ामोशी के नाम.

Thursday, March 08, 2012

होली नहीं तो क्या मज़ा!

जिंदगानी में अगर होली, नहीं तो क्या मज़ा.
गर नशे में भाँग की गोली, नहीं तो क्या मज़ा.

मानता त्यौहार हूँ, है भजन पूजन का दिन, 
पर वोदका की बोतलें खोली, नहीं तो क्या मज़ा.

टेसुओं गुलमोहरो के रंग से मत रंगिये,
दो बदन में कीचड़ें घोली, नहीं तो क्या मज़ा.

छुप के गुब्बारे भरे, रंग फेकते बच्चे यहाँ!  
खुल के रंगी चुनरे-चोली, नहीं तो क्या मज़ा.

रोकने से रुक गए क्योँ हाथ तेरे रंग भर,
भाभीयो ने गालियाँ तोली, नहीं तो क्या मज़ा.

मिल रहे हैं सब गले, एहसान जैसे कर रहे,
गर जबाँ पे प्यार की बोली, नहीं तो क्या मज़ा!

अपने घर में तो सभी, रंगते मगर 'राकेश' ऐ!
चौक-चौबारो में रंगोली, नहीं तो क्या मज़ा.
  

Wednesday, March 07, 2012

बलम रंग रसिया हो!

रंगी रे चुनरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

मनवा में हूक उठै,
देवर-ननदिया दौड़ाई,
गव्वा के देहरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

यार संगे द्वार बैठे,
हम भीतर अकुलाई,
चढी देखि अटरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

घेरी घेरी रंग डारै,
सारे अवध के भौजाई,
हमार जरै जेयरा हो!
बलम हरजैय्य  हो!

बिना साज-सिंगार देखे,
रंग डारै झकाझोर,
भरि के पिचकरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

लाल लाल रंग चढे,
तोहरी सोहबत से,
भीगी रे पियरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

कौन कम है हियाँ के जमीनिया,
काहें छोड़ी जाए आपन पुरनिया, (बुजुर्ग)
अब ना जायो नौकरिया हो!
बलम परदेसिया हो!

Tuesday, March 06, 2012

जनता ने फिर से चुन ली


जनता ने फिर से चुन ली, एस पी की सरकार,
लूट पात अब तुम करो, गै माया कै राज.
गै माया कै राज, कहै कवि 'राकेश'
हाथी की मुंडी करो, थाल में भर कै पेश.

देख सके तो देख ले, बी जे पी, कांग्रेस,
तुम जनता से नही जुड़े हो, यही रहा संदेश.
यही रहा संदेश, करो अब मीडिया बाजी,
चली भैईस साशन करे, खबर यही ताजी.

रोवै पंडित या दलित, तुला और तलवार,
हसि हसि जुगत लगावै, वोटन कै व्यापार.
वोटन कै व्यापार, कहैं 'सोशल इंजीनियरिंग'
मिले गला उनकै, जिनका गरियावै छिन छिन.

मुस्लिम वोटो के लिए, दिया कई लालच,
उर्दू शिक्षा माफ़ है, आरक्षण भी सच!
आरक्षण भी सच, बोलते मीठी बोली,
अब बस ईद मनावेंगे, छोड़ देंगे होली.

राजनीती कर कर के, हमको खूब छला, 
जनता रक्खै याद, कौन कितना है भला,
कौन कितना है भला, कहै कवी 'राकेश',
अगले चुनाव तक तो, खुलैगो तुम्हारो भेस.

Monday, March 05, 2012

-जीवन और होली 3-

फागुन में इस बार पड़ी है, मित्रो लोकतंत्र की होली,
वोट मागने निकल पड़ी है, नेता लोगो की टोली.
पांच साल के वादो का फगुआ गा-गा कर जाते हैं, 
छेड़, शरारत भूल-भाल कर शकल बनाई है भोली,

भ्रष्टाचार को ढक पायेगी खादी की उजली चोली! 
मत्त हुए हैं शासन पाकर, भूले जनता की बोली,
राजभव के हरे लान में, छनती दूध भरी भंगरायी,
जनता के पैसो से कैसे देखो, खेल रहे हैं ये होली !

रंग भरा व्यक्तित्व है उनका, नारे-वादो से होली,
मंत्रिपद है वहीँ जमेंगे, इस टोली या उस टोली,
भेद भाव है कहाँ वोट में हिन्दू का या मुस्लिम का,
जिनको गाली देते थे, उनसे कर बैठे हमजोली.

अगर चाहते बची रहे ब्रज रूपी संसद की 'रसिया'.
सबमे बाँटो एक बराबर भारत के 'धन की गुझिया'.
जनता के हर जख्मो को, वोटो में तुमने है तोली
बंद करो अब बंद करो तुम, लूट पाट की ये होली. 
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ऊख उगाकर, उसे जलाकर, मना रहा है वो होली,
जो कपास पैदा करता है, फटी रही उसकी चोली,
आखिर कब तक खून-पसीने पर न कोई राग-फाग,
आखिर कब तक रात बिताने को लेनी है भंगोली.

बिक गया बरसाना का खेत, बिक गयी बैलो की टोली, 
किसी शहर की बनती बिल्डिंग, में होगी अब रंगोली,
मुआवजा ऐसी गुझिया थी, चंद दिनों में ख़तम हुयी,
अब तो पूरी उम्र रहेगी, बेजारी की यह होली.


-जीवन और होली 2-

वर्ष परक है चित्त लुभावन, मदिरालय की है होली,
कानो में फगुआ से घोले, साकी बाला की बोली,
देश-विदेश से छनकर आई, भंगराई ही मस्ती ले,
दिलो-दिमाग पे छा जाती है, ऐसी बनती रंगोली.

भींच लिया मदिरो को, जब हमने निज आलिंगन में,
सुख-दुःख दोनों बद्ध किये कर, खड़े रहे अभिनन्दन में,  
ना ना ना ना करते रहते, जब तक बोतल ना खोली,
भद्र जनों ने दिखलाया फिर, क्या है भंग सहित होली!
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गुलमोहर के फूलो से है, मौसम खेल रहा होली,
पीले सरसों के फूलो से, रंगी धरती की चोली,
माघ बड़ा थर्राए है, और चैत पसीना लाये है,
हमको तो लगाती है बस, फागुन की सूरत भोली.

भंग चढ़ा है पुरवा को भी, डगमग डगमग है डोली,
हिचकी ले कर गान सुनाती, कोयल की मीठी बोली.  
बख्शा है मौसम ने सबको, थोड़ी मस्ती, बरजोरी, 
उठा गुलाल रंग ले जीवन, तू क्यों पीछे इस होली?
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दुश्मन दल की चिता जला, मनती है उनकी होली,
खुद खाते, दुश्मन को देते, गुझिया शायद है गोली. 
घाटी ब्रज-बरसाना जैसी, बंदूके पिचकारी सम,
खून से लथपथ-सराबोर है, वीर जवानो की चोली. 

राष्ट्र गान का फगुआ गाती, हिंद सपूतो की टोली,
जोश-खरोश में गूंज रही है, भारत के जय की बोली.   
भांग चढ़ा है देश प्रेम का, झूम रहे गलबहियाँ डाल,
मस्ती की जो यहाँ छटा है, और कहाँ ऐसी होली?

-जीवन और होली 1-

"मित्रो, मैं मानता हूँ की होली मस्ती के लिए है, लेकिन थोड़ा सा अलग विचार व्यक्त कर रहा हूँ, संभालिएगा."

पुनि पुनि भीगे ड्योढ़ी आँगन, कण कण उभरे रंगोली,
रंग चढ़े इस बार अगर तो, उतरे फिर अगली होली.
कैसा पुलकित दृश्य उपस्थित, भीग रहे नटवर नागर,
राधा संग गोपों की टोली, गोपियों प्रभु की हमजोली.   

भेद मिट गया, सराबोर है, अंतस, देह, और चोली,
प्रभु भक्ति मदमस्त कर रही, जबरदस्त यह भंगोली.
तृप्त हो गया, जी भर छाना, ऐसी ठंडई कहाँ मिले?
कृष्ण खड़े हैं लिए बांसुरी, मन मोदित है यह होली.


मोह, ईर्षा और दंभ को, जला होलिका में बोली-
'सा-रा-रा-रा', दिग्दिगंत के बंध खुल गए इस होली,
मुझको फर्क नहीं दिखता है, 'राधा' या 'गोविंदा' का,
दोनों की चुनरी को मैंने, 'हरे' रंग में है घोली.

'हरि' बन जाते पिचकारी, मै बन जाता हूँ तरल रंग, 
मेरा अंतस श्वेत दुग्ध औ, प्रभु की काया गरल भंग, 
भीगे सारे रंग शिथिल हो, बरसे चूनर औ चोली,
मेरा सेवन कर के देखो, भंग झूमता इस होली.  

तुम कहते फागुन में आती, एक बार ही बस होली!
मै कहता मुझमे बसती है मस्ती की हर भंगोली.
आओ देखो कभी झोपड़ी मेरी, तुम बारह मासो,
बेफिक्री से यहाँ फकीरी, खेल रही गुलाल-रोली.

तुम्हे पड़ी है गुझिया कैसे, फिर से कल हम खायेंगे,
अपना मुह मीठा करने को, फिर से कल गम आयेंगे. 
जमी हुयी है सात परत में, मन में यायावर रंगोली,
बहार यदि हो ईद, दीवाली, दिल में जलती है होली.


मान और अपमान पिया, तब असर दिखाई भंगोली,
धर्म पंथ को छोड़ दिया, तब मिलते सच्चे हमजोली,
गले मिलो तो फिर तुम ऐसे, जात-पात मत पूछो हे!
कई रंग में गुंथ कर बनती, इस समाज की रंगोली.


छुई नहीं ब्रज की माटी है, गया नहीं मै बरसाना,
देखा नहीं अवध में मैंने, राम लाला का फगुआना.
दे पाउ अनाथ बच्चो को, वापस यदि मै हंसी ठिठोली,
धन्य रहेगा रंग खेलना, आत्मसात होगी होली.




Saturday, March 03, 2012

दुनियादारी के दस हाइकू

फूटा ठीकरा
शेख बच निकला
तू था मुहरा


ढूंढ़ बकरा
शनैः रेत लो गला
दे चारा हरा


बेजुबाँ खरा
हक मागने लगा
तो दोष भरा


अना दोहरी
नश्तर सी चुभन
दगा अखरी!


यहाँ खतरा
ईश्वर हुआ अंधा
इन्सां बहरा


यार बिसरा
अब यहाँ क्या धरा
चलो जियरा


छटा कुहरा
छद्म बंधन मुक्त
पिया मदिरा


समा ठहरा
इंद्रधनुषी दुनिया
नशा गहरा


नेत्र बदरा
लगा झरझराने
रक्त बिखरा


नशा उतरा
आई घर की याद
बुझा चेहरा

Friday, March 02, 2012

हम लगायेंगे जबान पर मसाला नहीं


हम लगायेंगे जबान पर मसाला नहीं, 
अपनी गजलो में शऊर का ताला नहीं.

पैरवी उनके हसीन दर्द की क्या करें,
जिनको लगा धूप नहीं, पाला नहीं.

मेहदी की तारीफ हम कैसे कर पाएँ, 
गाव मे एक हाथ नही जिसमे छाला नही.

सावन में मिट्टी की खुशबू उनके लिए है,
जिनके घरो से होके बहता नाला नहीं.

गुटखा बेचने के लिए ट्रेनो में घूमता है, 
दूध के दांत टूटे नहीं, होश संभाला नहीं.

सर झुका के भजने लिखूंगा, अगर, 
सबको रोटी की फ़रियाद, टाला नहीं.

मदहोशी के कसीदो में वो कहाँ है? 
जिनके आंसू में 'अम्ल' है, हाला नहीं.

Thursday, March 01, 2012

माँ रात भर, जगती थी मेरी हर बीमारी में


बचपन का क्या बयान करू, कुछ याद नहीं रहा दुनियादारी में, 
बस ये नहीं भूला की माँ जागती थी रात भर, मेरी हर बीमारी में. 

मै भूखा हूँ, मुझको सताया है ज़माने भर ने नादान समझ कर, 
ये बातें उसको कैसे पता चल जाती है, घर की चाहर-दीवारी में. 

उसे भी मालूम है कि, घर के बाजू में मलमल की कई दूकाने है,
बेटे की हौसला अफजाई करती है सूती धोती की खरीददारी में.  

सीना तान के करता हूँ हर तूफानी हवा-पानी का सामना मै. 
मेरी माँ की दुआ की छतरी साथ चलती है मेरी रखवारी में. 

मलाल है मुझे गुडिया ही खेलने को मिला, बहनो से छोटा था, 
राखी के सौ रुपये से, घरोदे की मुक्कमल छत आई मेरी बारी में. 

मै क्यूँ अपनी माँ को इस कदर चाहता हूँ, ये बात समझ गई! 
मेरी शरीक-ए-हयात भी जब पहुँच गयी माँ की बिरादरी में. 

उधार की कील पर, दो कमरो के ताबूत जैसा था ये मकान,
माँ की चिट्ठी आई, और घर रोशन हो गया दुआ की चिंगारी में. 

Monday, February 27, 2012

बदला


बात 1970 के आस पास की है. पारसपुर में पंडित शिव राम अपनी 15 साल की फ़ौज की नौकरी पूरी कर वापस आये. इस गाव के पहले व्यक्ति थे जिन्हें नौकरी के लिए बाहर जाना पड़ा. वैसे तो साल में दो बार छुट्टियों पर आया करते थे और फ़ौज की टोपी लगा के गाव भर में घूमते रहते थे. मगर सन 1965 की लड़ाई के बाद उनका ओहदा बढ़ गया था और 2-2 साल में एक बार आया करते थे. फिर जब वो गाव में कभी वापस न जाने के लिए आये, तो फ़ौज की टोपी उतर का गाँधी टोपी पहन ली, और अवधी में हमेशा गाया करते थे:
"हम तो देशवा का सुधर बै, परिसरम के दानी बनि के नाय,
नरवा गाँधी के लगई बै, परिसरम के दानी बनि के नाय".

छह फुट का लम्बा चौड़ा कद और बड़ी बड़ी रोबदार मुछो से उनकी शख्शियत से ही बहादुरी और कद्दावर पन छलकता था. हालाँकि उन्होने आज तक किसी गाव वाले पर हाथ नहीं उठाया था किन्तु सब लोग उनसे डरते थे. अब चूकी वो सबसे ज्यादा पढ़े लिखे भी थे और फ़ौज में भी काम कर के आये थे तो सब लोग उनकी बात मानते थे.  

उन्होने आधुनिक ढंग से खेती बाड़ी करना शुरू किया और गाव की बाकि लोगो को भी इसके बारे में बताया. जब अनेक गावो में केरोसीन का तेल भी मिलना मुश्किल था, अपने पैसे और जद्दोजहद के दम पर उन्होंने पारसपुर में बिजली लाई. तमाम सारे खेतिहर मजदूरो को उचित मूल्य पर काम करवाया. और जब भी कोई मजदूरी की शिकायत ले कर आता था तो खुद जा के लोगो को समझाते थे कि, "समाज का कोई भी अंग अगर कमजोर हो गया, तो फिर व्याधि की तरह पूरे शरीर को कष्ट देगा". कुछ 4-5 सालो में उनके ही गाव की नहीं आस पास की गावो की भी पैदावार बहुत ज्यादा बढ़ गई. उनकी सूझ बूझ और दबंग प्रकृति के कारण, पूरी तहसील के लोग उन्हें 'कृषि मास्टर' के नाम से भी जानते थे.

पंडित जी की इस काबिलियत और प्रसिद्धि से लोगो का चिढना लाजमी था. किन्तु उनका फ़ौज से सम्बन्ध और कद काठी की वजह से लोग बस दिल में ही जल सकते थे.  'उनके पास बंदूक है' की चर्चा के नाते किसी की भी कुछ कर पाने की हिम्मत नहीं होती थी. एक दिन तहसील की बड़ी बाज़ार में ठाकुर विश्वनाथ सिंह ने पंडित जी को रोका. उनकी साइकिल की हैंडल पकड़ कर बोले "कृषि मास्टर! हमारे मुफ्त के मजदूरों को अपने खेतो में काम करवा रहे हो, जरा संभल कर, लाठियो में गोली भरने की जरूरत नहीं पड़ती". ये सुनते ही साईकिल के पीछे बैठा उनका बड़ा लड़का उतर कर कुछ बोलना चाहा, मगर पंडित जी, ने उसे चुपचाप पीछे बैठ जाने को कहा. हँडल से विश्वनाथ का हाथ रगड़ कर छुड़ाया और आगे बढ़ गए.  
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सुबह के पांच बजे थे. शिव राम नित्य कर्म के लिए गाव के खेतो में दूर तलक जाया करते थे, सुबह की सैर भी हो जाती थी और फसलो को एक नजर देख भी आते थे. आज भी दातून मुह में डाले और हाथ में लोटा लिए गन्ने के ऊँचे ऊँचे खेतो के बीच से जब वे गुजर रहे थे, तभी झुरमुटो में एक हलचल सी महसूस हुयी. उन्होंने लोटा वहीँ  रखा दिया और अपनी टार्च जला के इधर उधर देखने लगे. फिर हलचल वाली जगह टार्च का फोकस मार के ललकार के बोले "कौन है वहां?" 

कुछ उत्तर न आता देख और शांति भाप कर उन्होने टार्च फिर से अपनी लुंगी में खोस ली और लोटा उठाने के लिए वापस झुके. उसी छड उन्हें अपने सर पर एक जोर दार चोट का एहसास हुआ और औंधे मुह गिर गए. इसके बाद चार पांच लोग मुह बांधे हुए झाड से बहार निकले और लाठियो के ताबड़तोड़ प्रहार चालू कर दिया. कुछ देर चिल्लाने के बाद वो बेहोश हो गए. जब लठैतो को लगा की अब उनमे जान नहीं बची है तो भाग निकले. 

इधर शिव राम को घर से गए हुए एक घंटा हो चला था. ढुढाई शुरू हुयी. किसी ने दूर खेते से आवाज लगाया. लोग भागते हुए पहुचे. खून से लथपथ शरीर को चार पांच लोगो ने उठाया और रोते कलपते घर की ओर ले के चल दिए.

बिजली की तरह ये खबर पूरे तहसील में फ़ैल गई. आनन फानन में जो भी वैद्य का कम्पाउनडर मिला, लोग ले के पारसपुर पहुचने लगे.

पंडित जी के सांस की एक डोर बाकि थी और उसी के भरोसे कई गाव के लोग दो तीन दिन तक उनके दरवाजे पर ही बैठे रहे. तीन दिन बाद उन्हेंने पहली बार आंख खोल कर पानी लाने का इशारा किया. 
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शिव राम जी के कई फ़ौज के मित्रो को ये बात पता चली. 10 दिन बाद जब उन्हें काफी राहत मिल गई थी, तो पूरी एक जीप भर के फौजी जवानो की टोली उनके दरवाजे पर पहुची. लेटे लेटे ही उन्होंने अपने मित्रो का अभिवादन स्वीकार किया. जल पान के बाद फौजियो में से कोई बोला, "पंडित जी! कैसे लोग थे कुछ याद है?"

शिव राम अभी भी बहुत ज्यादा बोलने में असमर्थ थे. इससे पहले वे कुछ इशारा करें, उनके बड़े लडके ने तुनक कर कहा, "हमारे बाबू जी से बहुत से लोग चिढ़ते हैं और विश्वनाथ सिंह तो खासकर. हो न हो इसमे उसी का हाथ है", और बाजार वाली घटना भी बताना चाही. किन्तु बीच में ही शिव राम ने अपने लडके का हाथ भींचा और, उंगली से अपने होठ ढक के चुप रहने का इशारा किया. फिर आकाश की तरफ हाथ उठा के कहना चाहा कि "सब भगवान् की इच्छा है, जो हो गया सो हो गया".

इसके बाद कई बार पोलिस आई और फौजी मित्र आये, पर उन्होने किसी का भी नाम लेने से मन कर दिया, ऐसा कह कि कि मैंने "अपने कुछ गाव के लोगो को क्षमा किया है, इसमे मेरा ही स्वार्थ है."
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रात का दूसरा पहर रहा होगा. आंगन में जहाँ शिव राम सोये थे, धप्प करके के आवाज आई. वो जग गए. एक इंसान का मुह ढाका हुआ साया दिखा, चारपाई के करीब आया, और पाँव के पास आकर बैठ गया. उसने अपना मुह खोला और शिव राम ने टार्च से लाइट मारी. बगल के गाव के ठाकुर विश्वनाथ सिंह का चेहरा साफ़ साफ़ दिखाई पड़ रहा था. वो पंडित जी के पैरो पर लिपट गए, और आंसुओ से कहें तो चरण भिगो गए. 

शिव राम बोले, "विश्वानाथ जी, मै आपको और आपके लडके को उसी दिन पहचान गया था, किन्तु फ़ौज में मैंने एक कसम खाई थी कि अगर हाथ उठाऊंगा तो अपने गाव- देश की भलाई के लिए, नहीं तो कभी हाथ नहीं उठाऊंगा. बस उसी के नाते आपको माफ़ कर दिया है."

"कृषि मास्टर! मै माफ़ी के काबिल नहीं हू, आप अपनी बन्दूक से मुझे दाग दीजिये" विश्वनाथ बाबू एक लम्बी सांस खींच कर बोले. शिव राम बोले, "जाइये! घर जाइये, कल मै स्कूल के लिए पैसा मागने आऊंगा, जी खोल के प्रायश्चित कर लेना और जितना हो सके दान कर देना."

ठाकुर विश्वनाथ ने 15 -20 बीघा जमीन छोड़ के बाकी सब पंडित जी को दे दिया, जिस पर उन्होने इंटर कालेज और एक डिग्री कालेज भी खोला.

शिव राम ने अपना बदला ले लिया था.
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Monday, February 20, 2012

विज्ञापन

बेस्ट की बस के एक कोने में लटके टी वी में,
अचानक से हलचल हुई.
अष्टावक्र की स्थिति में खड़े होने के बावजूद,
लोगो की उत्सुकता जगी.
बहुत सारे रंगीन विज्ञापनो के बीच,
चार्ली चापलिन की एक ब्लाक एंड व्हाइट मूवी.

अब यात्री चार रुपये में मनोरंजन कर तो देते नहीं है.
ऐसे आंकड़े आये होँगे की, संत्रस्त परस्थितियों में-
इंसान ज्यादा चौकन्ना रहता है.
'अड्वरटाइजमेंट दिखाओ कालेज का!'
कौन सा बाप चाहेगा कि बच्चा ऐसी भीड़ बने?

इन विज्ञापनो ने बस में भी नहीं पीछा छोड़ा,
धक्को का नैसर्गिक सुख भी तोडा.
जबकि इनकी पहले से ही पकेजिंग कर दी गई है,
सारी या एक्सक्यूज मी के अर्थहीन शब्दो से.
आपके कष्ट को और मंगलमय और उद्देश्य पूर्ण-
बनाया गया है 'प्रचार' डाल कर.
अब प्रचार के बिना तो 'इंसान' को पता चलेगा नहीं कि,
"कन्या भ्रूण हत्या एक जघन्य अपराध है",
इत्यादि!

तड़के ही कई मेसेज मोबाइल पर रहते हैं,
अब तो अदात हो गई है.
पहले उठा के देखता था,
किसी जान-पहचान वाले का तो नहीं.
अब पता चल गया है कि नए रिश्तेदार कैसे बने.
मेरे अकाउंट के दस हज़ार रुपयो का भेद खुल चुका है.
और कोई बैंकर उनकी फ़िराक में है.
पर्सनल लोन या क्रेडिट कार्ड की आड़ में.

खाने की टेबल पर ऐसे ही ढूंढा,
की कुछ मिल जाये जिसे टी वी, रेडियो, अखबार,
इन्टरनेट, मोबाइल,
रोड, ट्रेन या बेस्ट की बस में,
ना देखा हो.
पर यहाँ तक की मुस्कराहट, और झल्लाहट,
कुछ घर का बना लगता ही नहीं.
बच्चा भी नयी मासूमियत के अदाए,
किसी दूध में मिलाने वाले पाउडर या-
चाकलेट के 'ऐड' से सीख रहा है.

मुझे बताया जा रहा है की मै अपनी बहन को,
होली-दिवाली क्या गिफ्ट दूँ.
अगर ये पहनू तो 'अमिताभ बच्चन' लगूंगा,
अगर वो खाऊंगा तो "युवराज सिंह".
अब जब रिसर्च होगी तब पता चलेगा कि,
"कपडे" आपके शहर के किसी दर्जी ने बनाये थे,
और दवा का क्या असर होता है आपकी
छाती पर, स्वाद पर, और सोच पर!
पर आप "जियो जी भर के"

कभी कभी नहीं समझता की,
बिना यूरिया के गेहू-धान कहाँ पैदा किया गया है.
किस ओर्गानिक फार्म में!
फिर सोचता हूँ,
रेलवे पटरी के किनारे वाले खेत से तो नहीं ही आया होगा.
पर "ये सोच" भी शायद उधार की है.
इसे पाल्यूशन फ्री "पेंट" से सदियो तक,
अंदरूनी सोच को ढकने के काबिल बनाया गया है,
यह भी मुझे बताया गया है!

वैसे तो सब जानकारियाँ मुफ्त है गूगल पर,
ज्ञान के लिए एक आभासी गुरु बैठा है वहा.
साइड के कालम में 'ऐड वर्ड' का छूरा लिए.
चुपके से जो आपके अवचेतन मन के अंगूठे  को
बिना आपसे दक्षिणा मागे काट लेगा.
फिर दांत निपोर के कहेगा: 'नो फ्री मील्स'.

"डिंग डांग: आप मेरे ब्लाग पर आ रहे प्रचार पर क्लिक करें!
आप जीत सकते हैं एक.........
आफर सिर्फ आज के लिए, नियम शर्ते लागू"
पता चला आपको क्या!
ऐसे ही चुपके से आपकी चपातियो और पूजाओ में-
विज्ञापन की सोच घुसा दी जाती है,
बिना "डिंग डांग" किये!

चुनाव में तो पहले से ही प्रचार वैद्य था.
'हमारे' दूरदर्शी नेता!
१२१ करोड़ के घर तो जा नहीं सकते.
गए भी तो क्या मुह ले के जाएँ,
पांच-पांच साल करके ६५ साल होने को आये है.
जुगत लगानी होगी.

जैसे की सिगरेट-दारू की कम्पनी बहादुरी का इनाम देकर,
अपने काली करतूतो को ढकना चाहती है.
ऋषि मुनि को भी विज्ञापन की जरुरत है.
उनके लिए परोक्ष रणनीति है.
अब भगवान् को चढाने के लिए 'मिनरल वाटर' में भरा-
गंगा का पानी हरिद्वार से लिया है या कानपूर से.
फर्क तो पड़ता है न भाई!

इस मोह-माया से निकालने के लिए,
तपस्या करने को हिमालय पर भी जगह नहीं है,
वहां भी शायद कोई बुद्धिमान देवता,
अपना बैनर लगा दे, किसी उर्वशी-मेनका को ले कर.
स्वर्ग जाइये, साथ में एक इंट्री फ्री-कॉम्बो आफर.
कम से कम तपस्या के वर्ष,
अगर इस साल व्रत शुरू करते हैं तो!

विज्ञापन का कोकीन मिला है हर चीज़ में.
सब पर एक खुमार सा छाया है,
अब वो माफिया सिर्फ टी वी के भरोसे नहीं है,
नए नए माध्यम तलाश कर रहा है,
आपके खून में घुल जाने के लिए,
लत लगा कर असहाय बनाने के लिए.

एडियाँ घिसने पर आपको भी मजबूर कर दिया है,
देखिये न, आपका दिल हमेशा 'मोर' मागता है!!
गौर से सुनिए.


Sunday, February 19, 2012

इंडिया अगेंस्ट करप्शन!


जब सुबह के चार बजेंगे,
काली निशा का चर्म होगा,
काफी लोग सो रहे होगे,
अँधेरे से सामंजस्य बिठा के या,
हताश हो कर.
और काफी लोग जाग भी रहे होगे,
शायद वो पूरी रात जगे होंगे.
अपने बच्चे को छाती से चिपकाये.
भूखे पेट नीद नहीं आती है ना.

कि तभी एक घर में अलार्म बजेगा.
जिन लोगो को सोने कि आदत पड़ गई है,
वो कसमसा के फिर से रजाई ओढ़ लेंगे.
बाकि लोग भगवान भास्कर के आने कि तैयारी करेंगे.

फिर १०-१० मिनट पर अलार्म बजने शुरू हो जायेंगे.
मोहल्ले के कई घरो से,
कुल ३०-४० प्रतिशत लोग उठ गए हैं अब तक.
करीब पांच बजे कई गाँव, कस्बे, और शहरो से,
अलार्म, घंटे-घड़ियालो, और अजानो कि आवाजे आने लगी.

पूरा वातावर्ण गुंजायमान हो उठा!
ये लो भगवन धीरे धीरे मुस्कुराते हुए चले आ रहे हैं,
लाल मुह लिए. अँधेरे पर बहुत गुस्सा है!
होना तो यही था, आज २१ दिसंबर था,
तो रात को लगा कि मै हमेशा राज करुँगी.

अँधेरा अपना जीर्ण शीर्ण वस्त्र संभाले,
घरो के कोने, ढके नाली नाबदान में में जा के,
फिर मौके की तलाश में छिप गया.

जो भूखे थे रात भर,
उनमे से कुछ मंदिर के बाहर जा के बैठ गए,
और कुछ गन्दी सड़के इत्यादि साफ़ करने लगे,
सामन ढोने लगे,
खाने को दोनों को ही मिलेगा!
बस कुछ लोगो को नहीं पता चल पायेगा कि,
रोटी कमाने के और क्या तरीके हैं.

अँधेरे का फायदा उठा कर कुछ चोर उच्चक्के,
मोहल्ले से सामान चुरा लिए,
काफी सारा ठाकुर साहब की हवेली में,
और दूसरे गाँव पहुचा चुके थे,
और थोडा बहुत अभी ठिकाने लगाना बाकी था.
पंडित जी ने देखा.
पर चूकी वो अभी अभी सरयू से नहा के आ रहे थे,
और मंदिर जाने को भी देर हो रही थी,
तो कुछ बोले नहीं,
चुपचाप निकल गए!

पर बुधया चौकीदार का छोटा बच्चा,
जिसकी पतंग कल नीम के पेड़ में अटक गई थी,
बिना मुह धोये लेने निकला.
उसको पता था कि,
जो स्कूटर ले के कुछ लोग जा रहे हैं,
वो बिल्डिंग में रहने वाले इंजिनियर साहब का है,
जिसे वो किसी को छूने नहीं दिए हैं कई सालो से.
पिछले साल भी,
जब उसकी बहन बीमार थी,
और डाक्टर के पास ले जाना था,
तब भी नहीं दी थी,
बुधया अपने कंधे पर बिठा के ले गया था.

देखा तो लगा चिल्लाने 'अन्ना हजारे' कि तरह.
चोर! चोर ! चोर!!

और मोहल्ले के जोशीले नौजवानों को बुला लिया,
और फिर जो सुताई हुयी है चोरो की-
पूछो मत!
जिसके हाथ में जो आया, उसी से ले दना दन!!

बहुत सारे लोग तो ये भी कहने लगे कि,
सारा सामान निकालेंगे,
ठाकुर साहब के घर की तलाशी होगी.
बगल के गाँव से भी लायेंगे.
खैर छोड़ो ये सब बातें!!

इतना सब होने के बाद भी,
अभी भी जो लोग सो रहे हैं,
उन्हें नहीं मालूम है की,
उनकी खटिया के सिराहने,
एक कुत्ता पेशाब कर के जा रहा है.

Thursday, February 16, 2012

एक हादसा इस इलेक्शन में

एक हादसा इस इलेक्शन में बहुत आम निकला,
दुधारू गाय के भेस में भेडिया गुमनाम निकला.

दाल-भात तो उसने हमारे गाँव में भी खाया था,
फिर क्योँ राजधानी जा के नमक हराम निकला.

जिसने सबसे ज्यादा चोट पहुचाई है हिन्दुओं को,
दरअसल वो किसी हिन्दू का ही गिरेबान निकला.

मुसलमान समझ कर पत्थर उठाया था जिस पर,
वो ‘कलाम’ निकला, अशफाक उल्ला खान निकला.

गोरखपुर से आये लोगो ने मचाया है बहुत उत्पात
,
शहर से एक देशभक्त मराठा का फरमान निकला.

बम्बई की मुक्कमल तस्वीर में वादियाँ ख़ूबसूरत थीं,

योँ ही नहीं फुटपाथ पर सोने कोई इंसान निकला.

Tuesday, February 14, 2012

दिल के आँगन में


दिल के आँगन में बरसो में आज चांदनी उतरी है.
उनके कदमो की चापो से राग-रागिनी छितरी है.

वही ठहाके कानो में गूंजा करते थे रह रह कर,
वही कसीदे-जुमले गुनते रहते थे हम हर पथ पर.

भूले मीतो के यादो से, रात बहुत ही अखरी है.
दिल के आँगन में………

कच्ची इमली की खातिर पत्थर खूब उछाले करना.
आमो की टहनी पे दिन भर झगडा कर झूले रहना.

यादो के गलियारो में बचपन की शरारत बिखरी हैं.
दिल के आँगन में………

गले लगाया, देर रात के चायो की भी चुस्की ली,
कक्षा के अध्यापक की भी नक़ल उतारी थोड़ी सी.

यारी की सारी बातो में यादें भूली बिसरी है.
दिल के आँगन में बरसो में आज चांदनी उतरी है.

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कुछ लेने मेरे उन दोस्तों के लिए जो प्रतिस्पर्धा में ही जिंदगी का मज़ा गवाए जा रहे हैं:


आये, बैठे, चाय पिए, फिर धंधे का गुणगान किये,
बाते जाने कहाँ-कहाँ की, बच्चे पर अभिमान किये.

उनकी बातो में केवल अब दुनिया-दारी बिखरी है,
दिल के आँगन में फिर से काली छाया पसरी है…..

सोचा था! दिल के आँगन में……….

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Monday, February 13, 2012

प्रेम के दो युगल हंस


प्रेम के दो युगल हंस,
बस लिए वादो के अंश,

नये प्यार की उमंग,
कर लिए दुनिया से जंग.

ना सुना किसी का सत्संग,
खड़े देख रहे माँ बाप दंग.

मिला दाल रोटी का दंश,
तब हुई मोह माया भंग.

आकर बने फिर घर अंग,
देख रहे हैं टी वी संग संग.

अब महगाई से नहीं रंज
परिवार धन्य! बस चादर तंग!

Friday, February 10, 2012

शहद की मक्खियाँ


तरक्की की राह में रोड़ा था मेरा मकां,
सड़क से बुलडोजर ले आई आंधियां

मिठाई बनाने वाले भी बेदखल हो गए,
शहद की मक्खियाँ अब जाएँगी कहाँ?

सारी जमी तुम्हारी, श्मशान तुम्हारे हैं,
आम आदमी की लाश दबाई जाये कहाँ.

तितलियाँ तो बाजार से गुलाब मागती है,
गेहू और धान के खेत लगाये जाये कहाँ.

आंगन में बसा कर, रोज दाना देते हैं,  
 गौर्रया अब अपने अंडे बचा पाये कहाँ? 

Monday, February 06, 2012

फूल की ख़ामोशी

फूल की एक ख़ामोशी, को देख पाए कौन,
दिल कांटे का छलनी हो, तो सहलाए कौन.

मेरी उदासी का सबब कोई पूछता नहीं,
मै खुद से खफा हूँ, तो फिर मनाये कौन.

एकलव्य को ढूढते हुए आये कई गुरु जन,
सवाल ये है कि, नया नया अंगूठा लाये कौन.

नासमझ हैं जो ख़ुदकुशी कर बैठते हैं, मगर!
रोटी को मचलते बच्चो का मुह देख पाए कौन?

सर्द रात बितानी है बिना छत की आस के,
पन्नी का गरल घूँटने को तलब ठहराए कौन.

सज धज के खडी हूँ, नीलाम होने के लिए,
हमें भी सिंदूर की आस थी, ये बताये कौन?

'राम' के दरबार में सुबो-शाम गुजर जाती है.  
मुफलिस के जले घर को देखने जाये कौन?

Saturday, February 04, 2012

दिल चीर कर

आभार: विकिपेडिया
‘दिल चीर कर’ कमाने की इच्छा पूरी हो गई,
भगवान् बनाने के लिए, ‘एम् डी’ जरूरी हो गई.

दूध हम पीते थे जिस माँ के तनो से लिपट कर,
उसको ‘उठा’ कर के सजाना, डाक्टरी हो गई.

सलामत ‘जिगर’ चाहिए तो धरो पूरे पांच लाख,
सुश्रुत के चोले में हकीमी, अन्गुलि-मारी हो गई.

जाइए, जंचवा के निर्णय लीजिये, बच्चे का भ्रुड,
आदमी के जमीर को भी ‘एक गुप्त बीमारी’ हो गई.

पांच सौ में खून दे कर, दारू के पैसे ले गया.
आजादी की सुभाष! ‘कितनी मजदूरी’ हो गई?

Thursday, February 02, 2012

यही अच्छा

दर्द अश्क बन के बह जाये, यही अच्छा.
मुह पे ‘ना’ कह के चला जाये, वही अच्छा.

नदी उस पार क्या है, माझी को न मालूम,
मजधार में तेरे संग डूबा जाये, यही अच्छा.

बहुत रो लिया, याद करके, बहुत तडपे हैं,
चलो कुछ ‘शेर’ लिक्खे जाये, यही अच्छा.

मौत के बहानो को सिपे-सालार क्या रोके?
रक्षा बंधन के धागे लपेटे जाये, यही अच्छा.

ठण्ड और भूख है, तन्हाई का बुरा आलम है,
माँ को ये बात न बताई जाये, यही अच्छा.

कोई हिन्दू बुलाएगा, कोई मुस्लिम बुलाएगा,
‘उसको’ दिल में सजाया जाये, यही अच्छा.

Tuesday, January 31, 2012

अधनंगा मधुमास

धारावी. आभार: गूगल.
लिखें कुछ मादकता के एहसास,
अधनंगा चला आ रहा है मधुमास,

उनसे पूछो आमो के बौर की 'आस',
जो गुठलियाँ खाएं या करे उपवास.

'ब्रिजो' के नीचे रहने वालो को नसीब,
मल-मूत्र के फूले पलाश का सुहास.

ऐसा लगता है कि जवानी फूट रही,
उसको माघ में भी नहीं था लिबाज.

हूक सी उठाती है, कोयल की आवाज,
माँ की छाती से जब दूध की नहीं आस.

'भींचकर' आलिंगन होगा, चुम्बन होगा,
आया है चुनाव इस बार फागुन के पास.    

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For my non-hindi speaking friends, an attempt to simplify the meaning: 

What does spring bring?

1. Lets write some feelings of wine
   Spring is coming half naked. 

2. They will tell the expectation of blossomed mangos,
   who either eat core of mango or do fast.

3. People who are living beneath bridges can get,
    fresh breeze of toilet. 

4. they because adult It seems,
 but they neither had cloths in winter. 

5.  There is a wince after a song of merle,
   When child do not have any expectation of milk from mother. 

6. You will receive a great amount of hug and kisses,
    Election is coming this time around spring. 

Sunday, January 29, 2012

‘हुस्न के जलवो से फिर’

‘हुस्न के जलवो से फिर’ उसकी कलम मजबूर है,
साभार: गूगल 
‘घर सजाने’ के लिए लिखता है, जो मशहूर है.

धर्म ग्रंथो और बुतो को, बेफिक्र नंगा कर दिया,
‘ब्रिटेन की नागरिकता’ पाने का यही दस्तूर है.

झूम जाती महफिले, की भाव ऐसे भर दिए,
शायरी लिखता गजब है, यदि ‘बियर’, ‘तंदूर’ है.

‘अलख की आग’ लगा, सत्ता समूची उलट दी,
इस बार मिया ‘ग़ालिब’ को ‘पद्म श्री’ मंजूर है.

‘मटेरियल’ के होड़ में, बस्तिया गन्दी छान दी,
एहतियातन, ‘बिसलरी’ से धो के खाते अंगूर है.

शान में चोखे लिखे, बजते हैं ‘छब्बीस जनवरी’ पर,
उससे पूछो ‘हश्र क्या’ जिसका मिटा सिन्दूर है.

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मै अगर ये कहू की ये रचना ‘अदम’ साहब को श्रद्धांजलि के लिए है, तो छोटे मुह बड़ी बात होगी.
इसलिए मै ये कहोंगा की उनको एकलव्य की तरह दिल में मूरत बना कर पूजते हुए कुछ लिख दिया.

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For my friends who are not comfortable with Hindi, an attempt to convey the meaning:

1. 'because of beauty' his pen is compelled,
    'to decorate his house' he write, what is famous.

2. He tainted the image of religious books and god statues
     its easier way to get citizenship of England.

3. His poems create a sensation in gatherings,
    He write beautifully when Bear and chickens are served.

4. He changed the leadership with his poems
    he must be nominated to 'padm shri' award this year.

5. In search of material, he visited lots of slums,
    As a precaution, he eat grapes washed in 'Bisleri'

6. Written patriotic song, used to run on republic day,
    But what about widows, of those solders.

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In memory of great Hindi poet 'Adam Gondavi' who just died on
18th of dec 2011. He was common man's poet and lived like that.



Friday, January 27, 2012

आशाओं के दीप.

आशाओ के दीप जला चल!
कहाँ भास्कर भारत का, तोड़े अंधियारे के बादल! 

फैला दे उजाले का मंगल,
आशाओ के दीप...........

घने तिमिर जीवन में अब,
आशा के दीप जलना है,
युवा शक्ति के भटके मन को,
विजय द्वार दिखलाना है.

बाधाएँ अभिकारक है, तू, उमड़ घुमड़ के चलता चल! 

फैलता जा जीवन पल पल,
आशाओ के दीप जला चल!

पंथ पंथ चिल्लाने से क्या,
कहीं पंथ मिल जाता है?
हाय! किनारे बैठ सोचने से,
क्या मोती आता है?

डूब और गहरे में जा कर, यहाँ का उथला है जल!

स्वेद की बूदे देंगी हल, 
आशाओ के दीप...........

प्रान्त और भाषा से या फिर,
फर्क कहाँ पड़ता है वेश का,
टुकडे टुकड़ो में बटकर के
भला हुआ है कब स्वदेश का,

जाति-धर्म के झगड़े सारे, राष्ट्र हितो को रहे निगल!

सबके जख्मो पर मलहम मल,
आशाओ के दीप......

सबका हिस्सा है विकास में,
जैसे सूरज के प्रकाश में,
निर्धन को भी रोटी कपड़ा-
दिशा यही हो हर प्रयास में.

हर घर में चूल्हा जला नहीं, तो व्यर्थ परिश्रम है केवल!

सच्चे श्रम को तू आज निकल,
आशाओ के दीप......

Thursday, January 26, 2012

चला हो, दिया पूरा हो!


अनिहार बहुत बढ़ गईल, चला हो, दिया पूरा हो!  (अनिहार: अंधेरा)

बर्थ-डे मनय, स्कूल खरतिन बजट नाही,
महगाई कुल छोरि लियेय, कौड़ी बचत नाही.

काव कही हम रोज़गार के कहानिया.
हमरे इहा खुलल बाए, जाति के दुकानिया.

खाए बिना मरै जमूरा हो, चला कि दिया पूरा हो!

घोड़ावा कि नाई भागत, सगरा जमनवा,
ज्ञान-विज्ञान पढ़य, सगरा जमनवा,

हम घुरचालि रही, कुववा म अपने,
दुरगुड निहार रही, गौवा म अपने.

हमार प्रांत बन गईल घूरा हो, चला! अब तो दिया पूरा हो!!

कवन कम बाय, हियाँ के ज़मीनिया,
कहें छोड़ी छोड़ी भागी, आपन पुरनिया,

यहीं जमेक चाही सबके पौवा,
'रालेगाओं' बन सकै हमारौ गौवा,

यहीं संग्राम करो पूरा हो, चिन्गी जलाओ, दिया पूरा हो!

किनकर्तव्या रहे चली ना कमवा,
घर मा बैठी कय,  बदले ना गउवा.

आवा, तनी तनी करा हो जतनवा,
कौनो फल मिलत नाहि, बिना सीचे तनवा.

मसीहा के राह देखब छोड़ा हो!
आपन खाब,अपुनै, करक परे पूरा हो, खुशी से दिया पूरा हो.

लाइफ इन लोकल: रिटर्न ट्रेन

http://www.desiprimeminister.com
सूरज का कम हुआ ताप है, 
उतर गया आज का भी श्राप  है.

कुछ को जल्दी, कुछ को कभी नही!
शाम की अस्मिता पर विवाद है.
  
कभी उड़ जाए, कभी अड जाए,
यही वक्त का त्रास है.
  
दौड़ते, बेचते, झगड़ते, उंघते -
लोगों को अपना घर याद है.

कोई गुनगुना है और कोई उबलता है,
पर सबके अंदर भाप है.

मिमियाना, घिघियाना बंद हो गया है,
समझौते जैसे हालात है.
  
देख रहे खिड़की-दरवाजो से दुबके,
इस भीड़ मे हर दर्द शांत है.
  
बेचता है मीठी गोलियाँ, नन्हे हाथो से,
क्या इसका भी कोई बाप है?
  
बहुत सारी को रोका गया,
उस ट्रेक पर दो-चार फास्ट है.

एक जैसे डिब्बो को कई रंग मे क्यो रंगा?
'इंसान' ही इसका जवाब है.

कौतूहल से बैठी देख रही जनता,
कुछ मनचलो का राज है.

आए थे अपनी मर्ज़ी से, पर अब,
निकालने को बेताब है.

मिला है सबको डब्बा एक जैसा.
कहीं परिहास है, तो कहीं विषाद है.

अभी 'आज' ख़त्म भी नही हुआ,
शुरू कल का हिसाब है.

फिर लौट के आएँगे सजधज कर,
जिंदगी के लंबे चौड़े ख्वाब है.

एक किरण बहुत जरूरी हो गई!


आभार: विकिपेडिया

रात बड़ी देर से है, एक किरण बहुत जरूरी हो गई!
कब तक सर कटाएँ, बगावत जनता की मजबूरी हो गई.

ये कलम नीली नहीं चलती, इसकी स्याही सिन्दूरी हो गई. 
असलहो की दरकार किसे है? हमारी जबान ही छूरी हो गई.

इलेक्शन आने वाले हैं, सरकार की नीद पूरी हो गई.
फिर वोट चाहिए, कौम से मिलने की मंजूरी हो गई.

गाँव में जा के देखे कौन! ऑफिस में खाना-पूरी हो गई.
कोई सम्बन्ध ही नहीं, दोनो भारत में बड़ी दूरी हो गई.

हक अपना पहचान लिया, जिन्दा लाश से जम्हूरी हो गई. 
कई मशाल दिख रही है, चिंगारी की जरूरत पूरी हो गई.

सीने में जलती है तो आग, पेट में - जी हुजूरी हो गई,
अगर चूलें नहीं हिली, तो बात फिर अधूरी हो गई.    

 (चूलें: नीव) ।  (जम्हूरी: जनता)

आजादी का गाना


पेट में नहीं दाना, तन पे नहीं बाना ,
आओ गाएँ 'लता जी' का गाना. 

"मौन व्रत" तोड़ेंगे आज, लाल किले पर,
'भाषण' किसने लिखा? ये तो बताना!

एक दिन का 'ड्राई डे' निकाल ले,
फिर क्या! खाना, खिलाना, मौज मनाना.

देश भक्तो को ढूंढ के लाना,
फिर 'पद्म भूषण' से सजाना.

जो करे ईमान की बाते,
उसे पड़ेगा भूख हड़ताल पर जाना. ("अन्ना जी" को समर्पित)

नया-नया गाल कहाँ से लायें,
'गांधी' बाबा! ये तुम ही बताना!

प्रार्थना पत्रो से काम नहीं चलता,
जनता को पड़ेगा हाथ उठाना.

Wednesday, January 25, 2012

क्या पकिस्तान हमारा भाई है?

वादे करते जाता है,
मुर्गा-रोटी खाता है,
ट्रेने भी चलवाता है. 

पर एक भाई दूसरे के 
हमेशा काम आता है.
इसलिए मुझको है शक!
वो भाई नहीं है.
उसका कुछ और है हक.

रिश्ते की बात करके जाते ही,
कुछ आतिशबाजी करता है. 
अब गावो की बारातो में भी,
तो इंसान जख्मी होता हैं. 

आजादी से है ये विवाद.
क्या पकिस्तान हमारा भाई है,
या है वो हमारा दामाद!

जश्न मानते रहो आजादी है

जश्न मानते रहो आजादी है
किसे-किसे खाना दे, पानी दे,
बड़ी आबादी है
Courtesy : Wikimedia

कैसे बचाएं अपना वजूद,
हर रोड पर, हर ऑफिस में,
चौराहे या जेब में 'गाँधी' है!

ठण्ड और धूप में उगाया-
ऊख जला बैठा, सच है!
किसान बड़ा फसादी है.

खाली दीवारें है कमरे की,
सुकून वाली, "सोफ्ट कॉपी" में है,
बाकी सब में बर्बादी है.

ऐ झंडा फहराने वालो!
गिरेबान में झाको,
"मरा अभी-अभी गद्दफ्फी है".

स्लम: Slum


कुछ टूटे फूटे मकां,
किसी के लिए घर.
किसी के लिए स्लम.

प्लास्टिक की छते,
प्लास्टिक से पटी नालिया,
पर जीवंत चेहरे.

दुःख, दर्द, हसी, ख़ुशी, समेटे.
हर भाव साफ़ साफ़ दिखाते.

उन्ही झोपड़ियो के बीच,
मंदिर है,
नायी की दूकान है,
समोसे वाला, अखबार वाला.
सब है, उसी छोटी सी जगह में.

अब वहा नई दुनिया की-
सबसे ऊची ईमारत बनेगी.

सब पर बुलडोजर चल गया.

अब नहीं दिखाती माये,
कतार लगाये,
बच्चो के स्कूल से -
छूटने के इन्तजार में.
बगल का स्कूल भी ढह गया.
वहां इंटर नेशनल स्कूल खुलेगा.

जगह वही है.
किसी के लिए स्लम,
किसी के लिए घर,
किसी के लिए फ़्लैट.

Tuesday, January 24, 2012

पीपल का पेड! Peepal


बहुत हरा भरा सा था,
कई पतझड़ो से खड़ा था. 


हाथियो ने बहुत खाया. 
राही को भी दिया छाया.


सावन की कजरी का झूला. 
कई चिडियो का घोसला. 


मिन्नतें मागते थे लोग, 
डोरा बंधाते थे लोग. 


सिन्दूर और नारियल चढ़ता. 
किसी का भूत भी उतरता. 


डामर-कंकड़ की चढ़ गया भेट. 
रास्ते में था एक पीपल का पेड!

भाषा ज्ञान: Bhasha Gyaan

मै शुरू शुरू में चेन्नई (तब मद्रास था) पढाई करने गया, तो अक्सर दोस्तों से मिलाने बंगलोर जाया करता था. जहाँ तक संस्कृति सभ्यता की बात है, उत्तर भारत में पाले बढे होने के कारण मुझे बहुत ही ज्यादा अंतर महसूस हुआ. धीरे धीरे अभ्यस्त हो गया. और मै इतना बताने में भी सक्षम हो गया कि ये बोली तमिल है, तेलगु है या फिर कन्नड़. जहाँ तक ऑटो रिक्शा वालो कि बात है सभी को आती है, बस अधिक किराया वसूलने के चक्कर में आपकी भाषा से अनजान बनते हैं. खैर भोले भाले कहीं के रिक्शे वाले नहीं होते हैं.

 उस दिन मेरी भी रात की बस थी चेन्नई के लिए. बस के पिक-अप पॉइंट पे बस आई और सभी लोग चढाने लगे. एक गोरी चमड़ी वाला युवक भी था जो यूरोपियन मूल का लग रहा था. उसके साथ थोडा ज्यादा सामान था तो बस वाले ने कुछ ज्यादा पैसे मागे होगे. इस पर बहस हुने लगी. पहले तो वह नव युवक टूटी फूटी इंग्लिश में बात कर रहा था. इससे मुझे समझ में आया की वो ब्रिटिश मूल का तो नहीं है. किन्तु जब कंडक्टर ने भाषा न समझाने का बहाना बनाया, तो वो हिंदी में बोलने लगा. ये एक सुखद अनुभव था, कि जहाँ हमारे दक्षिण के भाई बंधु हिंदी भाषा का ये कह के तिरस्कार कर देते हैं, कि इससे उनकी क्षेत्रीय भाषा को खतरा है और कहाँ ये युवक जो कि ब्रिटिशर न होते हुए भी हिंदी बोल रहा है. 

 किन्तु बस बाला भी बस वाला था. उसने हिंदी भी न जानने का बहाना बनाया. इस पर वो युवक उसे कन्नड़ में मोलभाव करने लगा. ये देख के मैंने दांतों तले उंगली दबा ली. और हद तो तब हो गई जब उसने ये बोला की 'नान तामिल पेस वेंदुम' मतलब 'मुझे अपनी तमिल का अभ्यास करना पड़ेगा.' मेरी समझ में आ गया कि यूरोपियन व्यापारी किस तरह आपकी भाषा ही सीख कर आपका ही सामान आपको बेच सकते हैं. मेरे भोले भाले हिन्दुस्तानियो भाषा कि लड़ाई में अपना वक्त न जाया करो. सब भाषा अच्छी है, सब भाषाओँ का सम्मान है. माना कि क्षेत्रीय या मात्र भाषा का अपना अलग ही स्थान होता है, किन्तु अधिक से अधिक भाषाएँ सीख कर आप अपने ही ज्ञान का दायरा बढ़ाएंगे. 

 संत कबीर ने क्या अच्छी बात की, ये किसी दक्षिण भारतीय को नहीं पता, इसी तरह संत तिरुवल्लुर ने क्या ज्ञान बाटा ये उत्तर भारतीय नहीं जान पाएंगे. इसलिए अधिक से अधिक भाषाएँ सीखिए. और ये बात उत्तर भारतीयो पर ज्यादा लागू होती हैं, क्योन्कि  सबसे ज्यादा शिकायत करने वाले यही लोग है कि अन्य लोग हिंदी नहीं सीखते. किन्तु एक बात जान लीजिये कि उत्तर भारतीयो का ही अन्य भाषा ज्ञान सबसे ख़राब है. ये मेरा व्यक्तिगत अवलोकन है.  मुझे हमेशा ये खेद रहता है कि अत्यधिक अकादमिक दबावो में रहते हुए, और इंग्लिश में काम चल जाने कि वजह से मै अन्य भाषाएँ नहीं सीख पाया.  

रक्खा क्या है!

छोड़ दे शर्म, शर्म में रक्खा क्या है!
हाँ या ना के उलझनो में रक्खा क्या है.

दर्दे दिल, जा के मुह पे बोल,
बयां आइना में करने में रक्खा क्या है.

नाकामियाबी को कबूल दिल से कर,
शराब के नशे में रक्खा क्या है.

छाती चौड़ी कर, झेल दुनिया के ताने,
घर में मुह छिपा के रक्खा क्या है.

फिर से बीज डाल, पानी दे,
बंजर जमीन कोसने में रक्खा क्या है.

फूल फिजा में बिखरने के लिए है,
दरगाह की चादर बनने में रक्खा क्या है.

नहीं यकीन है, तो खुल के बोल दे,
योँ ही काशी जाने में रक्खा क्या है.

Saturday, January 21, 2012

मुझसे प्यार करती हो

मेरे झूठे बहानो पर, कभी तुम तंज करती हो,
कभी बेवजह बातो के लिए भी रंज करती हो.


गिले शिकवे सभी नाकामियाबी के, मेरे कंधे पे-
सर रख के बयान करती हो,


तभी लगता है की तुम,
मुझसे प्यार करती हो.


फेहरिस्त अपने तकाजो की मुझपे थोप देती हो, 
खाली पर्स के लिए, फिर महगाई को दोष देती हो, 


कयास कर फिर मेरे बेफिक्र चेहरे को, मेरी आंखो में-
अपने सपने घोल देती हो.


मुझे लगता है की तुम,
मुझसे प्यार करती हो.


नये पतझड़, नयी फागुन के मौसम आगे आएंगे,
नये वादे बयां होँगे, पुरानी कसमे भुलायेंगे,


मेरे इस फलसफे को बेतुका सा नाम देकर, जब-
बेतर्क तुम फटकार देती हो.


दिल को यकीं होता है,
मुझसे तुम प्यार करती हो. 


मुझे लगता है……………………………….To you, who else.

Friday, January 20, 2012

मेरी धरती की परिक्रमा: Dharti ki parikrama

Courtesy: Yahoo!
सुबह शून्य मस्तिष्क से साथ जगा. बीच में किसी भी प्रकार की मानवीय भावनाए आये बिना बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. मैंने ये महसूस किया है कि जहाँ आप ये सोचने लगे, कि आखिर हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, क्या मैंने इसी लिए इतनी पढाई की थी, या फिर भारत में मजदूर कानून की विडम्बना, तो फिर आपको बिस्तर साम्यवाद के सम्मोहन कि तरह जकड लेगा, जहाँ ये यह जानते हुए भी कि विकास की प्रक्रिया धीमे पड़ गई है, त्याग नहीं पाते. खैर, सुबह की गरिमा बनाये रखते हुए मैंने अपने आप को अच्छी तरह से धोया, पोछा, और भगवान् के सामने, आज तो कलयुग में सत्य नारायण की व्रत कथा का अध्यात्म सुन के ही रहूँगा, का मनोभाव लिए मस्तक टेक दिए. किन्तु तभी घडी ने न जाने कैसे माया से 8 बजा दिए, और मैंने दिल से उतर कर पेट की सोचते हुए, हमारे नेताओ की तरह देश सेवा का मोह त्यागकर, अपने आपको भगवत-विरक्त कर लिया. 

एक नजर घर की स्थिति पर डाला तो जापान में हाल में आये भूकंप की याद आ गयी और मन भारी हो गया. किसी प्रकार अपने दिल को, पूरी गन्दगी और अव्यवस्था के लिए पत्नी और काम वाली बाई को दोषी ठहराने में कमियाब रहा. हालाकि मुह से कहने कि कुछ हिम्मत नहीं हुई. क्योन्कि इससे एक को आमेरिका कि तरह आपके ऊपर आक्रमण करने का बहाना मिल जाता है, और दूसरी को, सरकार को बहार से समर्थन देते हुए राजनीतिक दल की तरह, छोड़ के चले जाने का मौका. तो मै भी एक जिम्मेवार प्रधानमंत्री की तरह, सरकार चलाने के बोझ के नीचे अपने आप को दबा हुआ मानकर, अपनी 'किंकर्तव्य विमूढ़' स्थिति को उजागर न होते हुए, ये वक्तव्य दे डाला की 'पूरे मंत्रिमंडल पर मै चौबीसो घंटे नजर नहीं रख सकता'. 

नाश्ते के लिए फीका दूध-कार्नफ्लेक्स देखते ही माँ के हाथो के आलू के पराठे याद आ गए. वो इलाहाबाद में नाज-नखरो के साथ सर्दी में 10 बजे तक, 'राहुल जी' की तरह किसी गरीब के घर जाने जैसा, एहसान करते हुए उठाना. फिर मीडिया को एक-एक कौर दिखाते हुए खाना. शायद उन्ही लाड प्यार के कारण 'बाबा रामदेव' की तरह अब जीवन बहुत कठिन लग रहा है. महगाई देखते हुए आज अंगूर या सेब की जगह केले मिले. तो मैंने उसे घर में ही खा लेना उचित समझा, क्योंकि केलो के ऊपर आ रहे तमाम फतहो के बाद ऐसा लगाने लगा है कि, अगर पुरुष भी अपनी रूचि केलो में सार्वजनिक करने लगे, भले ही खाने के लिए, तो उन पर कुछ टीका टिपण्णी या फ़तवा न आ जाये. 

एक सॉफ्टवेर इंजीनियर होने के बाद भी मै भारतीय मूल्यों का पूरा ध्यान रखता हूँ. यदि कोई छींक दे, या बिल्ली रास्ता काट दे, तो ऐसी सब विषम परिस्थितियो में अपनी अपनी यात्रा थोड़ी देर के लिए रोक देता हूँ. आज भी मै जैसे ही निकला 'लिफ्ट की लोबी' में किसी ने छीका. मन तो यही हुआ की 'आजाद' की तरह उसकी खोपड़ी पत्थर से खोल दू, किन्तु किसी माडल की तरह बस उसको तिरछी निगाहो से देख कर रह गया. वापस घर पर जा के, 'करण थापर' की तरह बीवी की तमाम बातो में से प्रश्न ढूंढ कर उत्तर देने से अच्छा, शेअर मार्केट में पैसा लगाने वालो की तरह, भाग्य पर भरोसा करना उचित समझा. 

सुबह बाइक की भी स्थिति मेरे जैसी ही थी. अंगड़ाइयों पर अंगडाइया, किन्तु स्टार्ट होने का नाम नहीं. उसकी हेड-लाईट मेरी तरफ एक याचन की दृष्टि से देख रही थी, कि भाई साहब इस महीने तो सर्विसिंग करा दो, किन्तु मै भी एक चतुर उद्योग पति की तरह बोनस देने की तारीख लगातार बढ़ाये जा रहा था. आज बाइक ने स्तीफा देने की ठान ली, फिर तमाम कोशिशो के बाद भी स्टार्ट नहीं हुयी और, टीम लीड की तरह  खुद ही कोडिंग का जिम्मा उठाते हुए, मै अपने पैरो पर स्टेशन की तरफ रवाना हुआ. वहां गल्ली में कुत्तो को सोया हुआ देख कर ईर्षा होने लगी. रात भर किसी 'पार्टी एनीमल' की तरह हर बाइक और रिक्शे के पीछे दौड़ने वाले, और सुबह 'हैंग ओवर' से जूझते हुए सोते रहते हैं.  

हमारे इलाके के रिक्शे वाले एक दम PHD धारियो की तरह अपनी मनमर्जी का काम करते है, और लाख कोशिशो के बाद भी अपनी ही महारत वाले रस्ते पर चलते हैं चाहे वहां जाने वाला कोई भी न हो. जब भारतीय मध्यक्रम बल्लेबाजो की तरह कोई भी रिक्शा रुकता हुआ नहीं दिखा, तो मन में छींक वाली अवधारणा को आंकड़ो की मजबूती मिल गई. एक रिक्शे वाला रुका और रुक के 2 मिनट तक सोच विचार करके के बाद, वारेन बफेट के निवेशो की तरह इन्तजार करके, लम्बी दूरी वाले यात्री के लिए रुकना उचित समझा.  एक 'फंडिंग' न पा सकने वाले नए उद्यमी 'Enterprenuer' की तरह मै भी गर्दन नीचे करके आगे बढ़ता रहा.  

एक सज्जन को मै स्टेशन तक लिफ्ट दिया करता था. आज किसी और से लिफ्ट ले के मुझे क्रास करते हुए ऐसे मनोभाव दिखा रहे थे कि, जैसे वो कोई कॉलेज जाने वाली छात्रा हो और बाइक का ब्रेक मारने के बाद उनके उभारो की  छुआन से जो आनंद रोज़ मुझे आता था, वो आज किसी और को देने वाले है. मैंने भी ऐसे भाव दिखाए कि मुझे भी किसी मुस्टंडे में कोई रूचि नहीं है, और बेटा कल से लिफ्ट मागना, 'एक्सीलेरेटर' दबा के अपनी धुँआ फेकने वाली बाइक से मुह काला न कर दिया तो कहना. 


जिस प्रकार गणेश भगवान् ने अपने माँ बाप के चारो ओर चक्कर लगाया था, उसी प्रकार, घर से ऑफिस का चक्कर भी मेरे लिए धरती की परिक्रमा है. मुंबई की लोकल, इतनी भीड़ में उनकी सवारी 'चूहे' की तरह नजर आती है, और बहुत बार वैसी ही चलती है. किन्तु जैसे चूहे के सिवाय गणपति किसी और चीज़ पर सवारी नहीं कर सकते, मेरे जैसे तमाम लोग, न चाहते हुए भी रेलवे लाइन की सुबह-सुबह के मन को विचलित कर देने वाले वातावरण से रूबरू होना ही पड़ता है. स्थिति ऐसी है कि, अगर आपको 'मिड-डे' पेपर की अश्लील चित्रों का आनंद उठाना है तो उसमे छपी फालतू की ख़बरें तो पढ़नी ही पड़ेंगी. इन्ही उधेड़ बुन में, कभी लिफ्ट और रिक्शे की आस में इधर उधर देखते हुए, स्टेशन तक पंहुचा. किन्तु इतनी जद्दोजहद जिस ट्रेन के लिए की थी वो ट्रेन, प्रथम प्रेम, की तरह धोका देके जा चुकी थी, और अगली ट्रेन, 'बालिका वधू' में ब्रेक के बाद वाले भाग की तरह, 15 मिनट बाद थी.