Thursday, January 26, 2012

लाइफ इन लोकल: रिटर्न ट्रेन

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सूरज का कम हुआ ताप है, 
उतर गया आज का भी श्राप  है.

कुछ को जल्दी, कुछ को कभी नही!
शाम की अस्मिता पर विवाद है.
  
कभी उड़ जाए, कभी अड जाए,
यही वक्त का त्रास है.
  
दौड़ते, बेचते, झगड़ते, उंघते -
लोगों को अपना घर याद है.

कोई गुनगुना है और कोई उबलता है,
पर सबके अंदर भाप है.

मिमियाना, घिघियाना बंद हो गया है,
समझौते जैसे हालात है.
  
देख रहे खिड़की-दरवाजो से दुबके,
इस भीड़ मे हर दर्द शांत है.
  
बेचता है मीठी गोलियाँ, नन्हे हाथो से,
क्या इसका भी कोई बाप है?
  
बहुत सारी को रोका गया,
उस ट्रेक पर दो-चार फास्ट है.

एक जैसे डिब्बो को कई रंग मे क्यो रंगा?
'इंसान' ही इसका जवाब है.

कौतूहल से बैठी देख रही जनता,
कुछ मनचलो का राज है.

आए थे अपनी मर्ज़ी से, पर अब,
निकालने को बेताब है.

मिला है सबको डब्बा एक जैसा.
कहीं परिहास है, तो कहीं विषाद है.

अभी 'आज' ख़त्म भी नही हुआ,
शुरू कल का हिसाब है.

फिर लौट के आएँगे सजधज कर,
जिंदगी के लंबे चौड़े ख्वाब है.

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