Wednesday, March 14, 2012

दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में

दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में,
वादों से गर्म दाल परोसी चुनाव में.
ढूंढे नहीं  मिला एक भी रहनुमा यहाँ,
सच कहने सुनने की हिम्मत रखे स्वभाव में.

तब्दीलियाँ है माँगते यों ही सुझाव में,
फिर भेज दी है मूरतियां डूबे गाव में,
दिल्ली में बैठ के समझेंगे वो बाढ़ को,
लाशें यहाँ दफ़न होने जाती है नाव में.

पूछा क्या रखोगे मुहब्बत के दाव में?
आ देख नमक लगा रक्खा है घाव में,
तुम हमको कभी, पत्थर मार देते तो,
लहरें बनाते सुन्दर दिल के तलाव में.

कोयला बना चमक कर हीरा दबाव में,
वीणा से सप्त सुर निकले तनाव में.
पौधे कभी वो छूते नहीं आसमान को,
पलते जो हैं किसी बड़े बरगद की छाँव में.    

माँ को सुकूँ है जब, बेटे खाते हैं चाव में.
उसको है दर्द, मुझे चुभते कांटे पाँव में.
घर ना बना सके गर 'राकेश' इस शहर, 
जी लेंगे माँ के आंचल की नर्म छाँव में.

'बागी' नहीं वो क्या होंगे, कविता के ठाव में?
जैसे बहेलिये कुछ, चिड़ियों के ताव में.
देखा कभी है कोयल, घर की मुडेर पर,  
शायर नहीं ठहरते, काव काव में. 



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