Monday, March 05, 2012

-जीवन और होली 3-

फागुन में इस बार पड़ी है, मित्रो लोकतंत्र की होली,
वोट मागने निकल पड़ी है, नेता लोगो की टोली.
पांच साल के वादो का फगुआ गा-गा कर जाते हैं, 
छेड़, शरारत भूल-भाल कर शकल बनाई है भोली,

भ्रष्टाचार को ढक पायेगी खादी की उजली चोली! 
मत्त हुए हैं शासन पाकर, भूले जनता की बोली,
राजभव के हरे लान में, छनती दूध भरी भंगरायी,
जनता के पैसो से कैसे देखो, खेल रहे हैं ये होली !

रंग भरा व्यक्तित्व है उनका, नारे-वादो से होली,
मंत्रिपद है वहीँ जमेंगे, इस टोली या उस टोली,
भेद भाव है कहाँ वोट में हिन्दू का या मुस्लिम का,
जिनको गाली देते थे, उनसे कर बैठे हमजोली.

अगर चाहते बची रहे ब्रज रूपी संसद की 'रसिया'.
सबमे बाँटो एक बराबर भारत के 'धन की गुझिया'.
जनता के हर जख्मो को, वोटो में तुमने है तोली
बंद करो अब बंद करो तुम, लूट पाट की ये होली. 
-----------------------------

ऊख उगाकर, उसे जलाकर, मना रहा है वो होली,
जो कपास पैदा करता है, फटी रही उसकी चोली,
आखिर कब तक खून-पसीने पर न कोई राग-फाग,
आखिर कब तक रात बिताने को लेनी है भंगोली.

बिक गया बरसाना का खेत, बिक गयी बैलो की टोली, 
किसी शहर की बनती बिल्डिंग, में होगी अब रंगोली,
मुआवजा ऐसी गुझिया थी, चंद दिनों में ख़तम हुयी,
अब तो पूरी उम्र रहेगी, बेजारी की यह होली.


No comments: