Saturday, March 10, 2012

माग मत अधिकार अपना

माग मत अधिकार अपना, ये अनैतिक कर्म है, 
ठेस लगती है हुकूमत का बहुत दिल नर्म है.
 
हक हमारा कुछ नहीं, पुरखे हमारे लापता,
हर तरक्की के लिए बस 'द्रष्टि उनकी' मर्म है. 

सैर को आये कभी जब समझ उपवन गाँव को, 
खेत सूखे देख कर गर्दन झुकी है, शर्म है. 

कह दिया गर 'भूख से हम मर रहे है ऐ खुदा!'
बोला गया तब सब्र और विश्वास रखना धर्म है. 

कट गए सद्दाम या लादेन, गद्दाफी सड़क पर,
तब समझ में आ गया खूं कौम का भी गर्म है!

लूट, हिंसा और लिप्सा से निकलए शेख जी,
भोर होने आ चली, काली निशा का चर्म है.

--------------- मध्य प्रदेश की सरकार की ख़ामोशी के नाम.

Thursday, March 08, 2012

होली नहीं तो क्या मज़ा!

जिंदगानी में अगर होली, नहीं तो क्या मज़ा.
गर नशे में भाँग की गोली, नहीं तो क्या मज़ा.

मानता त्यौहार हूँ, है भजन पूजन का दिन, 
पर वोदका की बोतलें खोली, नहीं तो क्या मज़ा.

टेसुओं गुलमोहरो के रंग से मत रंगिये,
दो बदन में कीचड़ें घोली, नहीं तो क्या मज़ा.

छुप के गुब्बारे भरे, रंग फेकते बच्चे यहाँ!  
खुल के रंगी चुनरे-चोली, नहीं तो क्या मज़ा.

रोकने से रुक गए क्योँ हाथ तेरे रंग भर,
भाभीयो ने गालियाँ तोली, नहीं तो क्या मज़ा.

मिल रहे हैं सब गले, एहसान जैसे कर रहे,
गर जबाँ पे प्यार की बोली, नहीं तो क्या मज़ा!

अपने घर में तो सभी, रंगते मगर 'राकेश' ऐ!
चौक-चौबारो में रंगोली, नहीं तो क्या मज़ा.
  

Wednesday, March 07, 2012

बलम रंग रसिया हो!

रंगी रे चुनरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

मनवा में हूक उठै,
देवर-ननदिया दौड़ाई,
गव्वा के देहरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

यार संगे द्वार बैठे,
हम भीतर अकुलाई,
चढी देखि अटरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

घेरी घेरी रंग डारै,
सारे अवध के भौजाई,
हमार जरै जेयरा हो!
बलम हरजैय्य  हो!

बिना साज-सिंगार देखे,
रंग डारै झकाझोर,
भरि के पिचकरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

लाल लाल रंग चढे,
तोहरी सोहबत से,
भीगी रे पियरिया हो!
बलम रंग रसिया हो!

कौन कम है हियाँ के जमीनिया,
काहें छोड़ी जाए आपन पुरनिया, (बुजुर्ग)
अब ना जायो नौकरिया हो!
बलम परदेसिया हो!

Tuesday, March 06, 2012

जनता ने फिर से चुन ली


जनता ने फिर से चुन ली, एस पी की सरकार,
लूट पात अब तुम करो, गै माया कै राज.
गै माया कै राज, कहै कवि 'राकेश'
हाथी की मुंडी करो, थाल में भर कै पेश.

देख सके तो देख ले, बी जे पी, कांग्रेस,
तुम जनता से नही जुड़े हो, यही रहा संदेश.
यही रहा संदेश, करो अब मीडिया बाजी,
चली भैईस साशन करे, खबर यही ताजी.

रोवै पंडित या दलित, तुला और तलवार,
हसि हसि जुगत लगावै, वोटन कै व्यापार.
वोटन कै व्यापार, कहैं 'सोशल इंजीनियरिंग'
मिले गला उनकै, जिनका गरियावै छिन छिन.

मुस्लिम वोटो के लिए, दिया कई लालच,
उर्दू शिक्षा माफ़ है, आरक्षण भी सच!
आरक्षण भी सच, बोलते मीठी बोली,
अब बस ईद मनावेंगे, छोड़ देंगे होली.

राजनीती कर कर के, हमको खूब छला, 
जनता रक्खै याद, कौन कितना है भला,
कौन कितना है भला, कहै कवी 'राकेश',
अगले चुनाव तक तो, खुलैगो तुम्हारो भेस.

Monday, March 05, 2012

-जीवन और होली 3-

फागुन में इस बार पड़ी है, मित्रो लोकतंत्र की होली,
वोट मागने निकल पड़ी है, नेता लोगो की टोली.
पांच साल के वादो का फगुआ गा-गा कर जाते हैं, 
छेड़, शरारत भूल-भाल कर शकल बनाई है भोली,

भ्रष्टाचार को ढक पायेगी खादी की उजली चोली! 
मत्त हुए हैं शासन पाकर, भूले जनता की बोली,
राजभव के हरे लान में, छनती दूध भरी भंगरायी,
जनता के पैसो से कैसे देखो, खेल रहे हैं ये होली !

रंग भरा व्यक्तित्व है उनका, नारे-वादो से होली,
मंत्रिपद है वहीँ जमेंगे, इस टोली या उस टोली,
भेद भाव है कहाँ वोट में हिन्दू का या मुस्लिम का,
जिनको गाली देते थे, उनसे कर बैठे हमजोली.

अगर चाहते बची रहे ब्रज रूपी संसद की 'रसिया'.
सबमे बाँटो एक बराबर भारत के 'धन की गुझिया'.
जनता के हर जख्मो को, वोटो में तुमने है तोली
बंद करो अब बंद करो तुम, लूट पाट की ये होली. 
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ऊख उगाकर, उसे जलाकर, मना रहा है वो होली,
जो कपास पैदा करता है, फटी रही उसकी चोली,
आखिर कब तक खून-पसीने पर न कोई राग-फाग,
आखिर कब तक रात बिताने को लेनी है भंगोली.

बिक गया बरसाना का खेत, बिक गयी बैलो की टोली, 
किसी शहर की बनती बिल्डिंग, में होगी अब रंगोली,
मुआवजा ऐसी गुझिया थी, चंद दिनों में ख़तम हुयी,
अब तो पूरी उम्र रहेगी, बेजारी की यह होली.


-जीवन और होली 2-

वर्ष परक है चित्त लुभावन, मदिरालय की है होली,
कानो में फगुआ से घोले, साकी बाला की बोली,
देश-विदेश से छनकर आई, भंगराई ही मस्ती ले,
दिलो-दिमाग पे छा जाती है, ऐसी बनती रंगोली.

भींच लिया मदिरो को, जब हमने निज आलिंगन में,
सुख-दुःख दोनों बद्ध किये कर, खड़े रहे अभिनन्दन में,  
ना ना ना ना करते रहते, जब तक बोतल ना खोली,
भद्र जनों ने दिखलाया फिर, क्या है भंग सहित होली!
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गुलमोहर के फूलो से है, मौसम खेल रहा होली,
पीले सरसों के फूलो से, रंगी धरती की चोली,
माघ बड़ा थर्राए है, और चैत पसीना लाये है,
हमको तो लगाती है बस, फागुन की सूरत भोली.

भंग चढ़ा है पुरवा को भी, डगमग डगमग है डोली,
हिचकी ले कर गान सुनाती, कोयल की मीठी बोली.  
बख्शा है मौसम ने सबको, थोड़ी मस्ती, बरजोरी, 
उठा गुलाल रंग ले जीवन, तू क्यों पीछे इस होली?
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दुश्मन दल की चिता जला, मनती है उनकी होली,
खुद खाते, दुश्मन को देते, गुझिया शायद है गोली. 
घाटी ब्रज-बरसाना जैसी, बंदूके पिचकारी सम,
खून से लथपथ-सराबोर है, वीर जवानो की चोली. 

राष्ट्र गान का फगुआ गाती, हिंद सपूतो की टोली,
जोश-खरोश में गूंज रही है, भारत के जय की बोली.   
भांग चढ़ा है देश प्रेम का, झूम रहे गलबहियाँ डाल,
मस्ती की जो यहाँ छटा है, और कहाँ ऐसी होली?

-जीवन और होली 1-

"मित्रो, मैं मानता हूँ की होली मस्ती के लिए है, लेकिन थोड़ा सा अलग विचार व्यक्त कर रहा हूँ, संभालिएगा."

पुनि पुनि भीगे ड्योढ़ी आँगन, कण कण उभरे रंगोली,
रंग चढ़े इस बार अगर तो, उतरे फिर अगली होली.
कैसा पुलकित दृश्य उपस्थित, भीग रहे नटवर नागर,
राधा संग गोपों की टोली, गोपियों प्रभु की हमजोली.   

भेद मिट गया, सराबोर है, अंतस, देह, और चोली,
प्रभु भक्ति मदमस्त कर रही, जबरदस्त यह भंगोली.
तृप्त हो गया, जी भर छाना, ऐसी ठंडई कहाँ मिले?
कृष्ण खड़े हैं लिए बांसुरी, मन मोदित है यह होली.


मोह, ईर्षा और दंभ को, जला होलिका में बोली-
'सा-रा-रा-रा', दिग्दिगंत के बंध खुल गए इस होली,
मुझको फर्क नहीं दिखता है, 'राधा' या 'गोविंदा' का,
दोनों की चुनरी को मैंने, 'हरे' रंग में है घोली.

'हरि' बन जाते पिचकारी, मै बन जाता हूँ तरल रंग, 
मेरा अंतस श्वेत दुग्ध औ, प्रभु की काया गरल भंग, 
भीगे सारे रंग शिथिल हो, बरसे चूनर औ चोली,
मेरा सेवन कर के देखो, भंग झूमता इस होली.  

तुम कहते फागुन में आती, एक बार ही बस होली!
मै कहता मुझमे बसती है मस्ती की हर भंगोली.
आओ देखो कभी झोपड़ी मेरी, तुम बारह मासो,
बेफिक्री से यहाँ फकीरी, खेल रही गुलाल-रोली.

तुम्हे पड़ी है गुझिया कैसे, फिर से कल हम खायेंगे,
अपना मुह मीठा करने को, फिर से कल गम आयेंगे. 
जमी हुयी है सात परत में, मन में यायावर रंगोली,
बहार यदि हो ईद, दीवाली, दिल में जलती है होली.


मान और अपमान पिया, तब असर दिखाई भंगोली,
धर्म पंथ को छोड़ दिया, तब मिलते सच्चे हमजोली,
गले मिलो तो फिर तुम ऐसे, जात-पात मत पूछो हे!
कई रंग में गुंथ कर बनती, इस समाज की रंगोली.


छुई नहीं ब्रज की माटी है, गया नहीं मै बरसाना,
देखा नहीं अवध में मैंने, राम लाला का फगुआना.
दे पाउ अनाथ बच्चो को, वापस यदि मै हंसी ठिठोली,
धन्य रहेगा रंग खेलना, आत्मसात होगी होली.




Saturday, March 03, 2012

दुनियादारी के दस हाइकू

फूटा ठीकरा
शेख बच निकला
तू था मुहरा


ढूंढ़ बकरा
शनैः रेत लो गला
दे चारा हरा


बेजुबाँ खरा
हक मागने लगा
तो दोष भरा


अना दोहरी
नश्तर सी चुभन
दगा अखरी!


यहाँ खतरा
ईश्वर हुआ अंधा
इन्सां बहरा


यार बिसरा
अब यहाँ क्या धरा
चलो जियरा


छटा कुहरा
छद्म बंधन मुक्त
पिया मदिरा


समा ठहरा
इंद्रधनुषी दुनिया
नशा गहरा


नेत्र बदरा
लगा झरझराने
रक्त बिखरा


नशा उतरा
आई घर की याद
बुझा चेहरा

Friday, March 02, 2012

हम लगायेंगे जबान पर मसाला नहीं


हम लगायेंगे जबान पर मसाला नहीं, 
अपनी गजलो में शऊर का ताला नहीं.

पैरवी उनके हसीन दर्द की क्या करें,
जिनको लगा धूप नहीं, पाला नहीं.

मेहदी की तारीफ हम कैसे कर पाएँ, 
गाव मे एक हाथ नही जिसमे छाला नही.

सावन में मिट्टी की खुशबू उनके लिए है,
जिनके घरो से होके बहता नाला नहीं.

गुटखा बेचने के लिए ट्रेनो में घूमता है, 
दूध के दांत टूटे नहीं, होश संभाला नहीं.

सर झुका के भजने लिखूंगा, अगर, 
सबको रोटी की फ़रियाद, टाला नहीं.

मदहोशी के कसीदो में वो कहाँ है? 
जिनके आंसू में 'अम्ल' है, हाला नहीं.

Thursday, March 01, 2012

माँ रात भर, जगती थी मेरी हर बीमारी में


बचपन का क्या बयान करू, कुछ याद नहीं रहा दुनियादारी में, 
बस ये नहीं भूला की माँ जागती थी रात भर, मेरी हर बीमारी में. 

मै भूखा हूँ, मुझको सताया है ज़माने भर ने नादान समझ कर, 
ये बातें उसको कैसे पता चल जाती है, घर की चाहर-दीवारी में. 

उसे भी मालूम है कि, घर के बाजू में मलमल की कई दूकाने है,
बेटे की हौसला अफजाई करती है सूती धोती की खरीददारी में.  

सीना तान के करता हूँ हर तूफानी हवा-पानी का सामना मै. 
मेरी माँ की दुआ की छतरी साथ चलती है मेरी रखवारी में. 

मलाल है मुझे गुडिया ही खेलने को मिला, बहनो से छोटा था, 
राखी के सौ रुपये से, घरोदे की मुक्कमल छत आई मेरी बारी में. 

मै क्यूँ अपनी माँ को इस कदर चाहता हूँ, ये बात समझ गई! 
मेरी शरीक-ए-हयात भी जब पहुँच गयी माँ की बिरादरी में. 

उधार की कील पर, दो कमरो के ताबूत जैसा था ये मकान,
माँ की चिट्ठी आई, और घर रोशन हो गया दुआ की चिंगारी में. 

Monday, February 27, 2012

बदला


बात 1970 के आस पास की है. पारसपुर में पंडित शिव राम अपनी 15 साल की फ़ौज की नौकरी पूरी कर वापस आये. इस गाव के पहले व्यक्ति थे जिन्हें नौकरी के लिए बाहर जाना पड़ा. वैसे तो साल में दो बार छुट्टियों पर आया करते थे और फ़ौज की टोपी लगा के गाव भर में घूमते रहते थे. मगर सन 1965 की लड़ाई के बाद उनका ओहदा बढ़ गया था और 2-2 साल में एक बार आया करते थे. फिर जब वो गाव में कभी वापस न जाने के लिए आये, तो फ़ौज की टोपी उतर का गाँधी टोपी पहन ली, और अवधी में हमेशा गाया करते थे:
"हम तो देशवा का सुधर बै, परिसरम के दानी बनि के नाय,
नरवा गाँधी के लगई बै, परिसरम के दानी बनि के नाय".

छह फुट का लम्बा चौड़ा कद और बड़ी बड़ी रोबदार मुछो से उनकी शख्शियत से ही बहादुरी और कद्दावर पन छलकता था. हालाँकि उन्होने आज तक किसी गाव वाले पर हाथ नहीं उठाया था किन्तु सब लोग उनसे डरते थे. अब चूकी वो सबसे ज्यादा पढ़े लिखे भी थे और फ़ौज में भी काम कर के आये थे तो सब लोग उनकी बात मानते थे.  

उन्होने आधुनिक ढंग से खेती बाड़ी करना शुरू किया और गाव की बाकि लोगो को भी इसके बारे में बताया. जब अनेक गावो में केरोसीन का तेल भी मिलना मुश्किल था, अपने पैसे और जद्दोजहद के दम पर उन्होंने पारसपुर में बिजली लाई. तमाम सारे खेतिहर मजदूरो को उचित मूल्य पर काम करवाया. और जब भी कोई मजदूरी की शिकायत ले कर आता था तो खुद जा के लोगो को समझाते थे कि, "समाज का कोई भी अंग अगर कमजोर हो गया, तो फिर व्याधि की तरह पूरे शरीर को कष्ट देगा". कुछ 4-5 सालो में उनके ही गाव की नहीं आस पास की गावो की भी पैदावार बहुत ज्यादा बढ़ गई. उनकी सूझ बूझ और दबंग प्रकृति के कारण, पूरी तहसील के लोग उन्हें 'कृषि मास्टर' के नाम से भी जानते थे.

पंडित जी की इस काबिलियत और प्रसिद्धि से लोगो का चिढना लाजमी था. किन्तु उनका फ़ौज से सम्बन्ध और कद काठी की वजह से लोग बस दिल में ही जल सकते थे.  'उनके पास बंदूक है' की चर्चा के नाते किसी की भी कुछ कर पाने की हिम्मत नहीं होती थी. एक दिन तहसील की बड़ी बाज़ार में ठाकुर विश्वनाथ सिंह ने पंडित जी को रोका. उनकी साइकिल की हैंडल पकड़ कर बोले "कृषि मास्टर! हमारे मुफ्त के मजदूरों को अपने खेतो में काम करवा रहे हो, जरा संभल कर, लाठियो में गोली भरने की जरूरत नहीं पड़ती". ये सुनते ही साईकिल के पीछे बैठा उनका बड़ा लड़का उतर कर कुछ बोलना चाहा, मगर पंडित जी, ने उसे चुपचाप पीछे बैठ जाने को कहा. हँडल से विश्वनाथ का हाथ रगड़ कर छुड़ाया और आगे बढ़ गए.  
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सुबह के पांच बजे थे. शिव राम नित्य कर्म के लिए गाव के खेतो में दूर तलक जाया करते थे, सुबह की सैर भी हो जाती थी और फसलो को एक नजर देख भी आते थे. आज भी दातून मुह में डाले और हाथ में लोटा लिए गन्ने के ऊँचे ऊँचे खेतो के बीच से जब वे गुजर रहे थे, तभी झुरमुटो में एक हलचल सी महसूस हुयी. उन्होंने लोटा वहीँ  रखा दिया और अपनी टार्च जला के इधर उधर देखने लगे. फिर हलचल वाली जगह टार्च का फोकस मार के ललकार के बोले "कौन है वहां?" 

कुछ उत्तर न आता देख और शांति भाप कर उन्होने टार्च फिर से अपनी लुंगी में खोस ली और लोटा उठाने के लिए वापस झुके. उसी छड उन्हें अपने सर पर एक जोर दार चोट का एहसास हुआ और औंधे मुह गिर गए. इसके बाद चार पांच लोग मुह बांधे हुए झाड से बहार निकले और लाठियो के ताबड़तोड़ प्रहार चालू कर दिया. कुछ देर चिल्लाने के बाद वो बेहोश हो गए. जब लठैतो को लगा की अब उनमे जान नहीं बची है तो भाग निकले. 

इधर शिव राम को घर से गए हुए एक घंटा हो चला था. ढुढाई शुरू हुयी. किसी ने दूर खेते से आवाज लगाया. लोग भागते हुए पहुचे. खून से लथपथ शरीर को चार पांच लोगो ने उठाया और रोते कलपते घर की ओर ले के चल दिए.

बिजली की तरह ये खबर पूरे तहसील में फ़ैल गई. आनन फानन में जो भी वैद्य का कम्पाउनडर मिला, लोग ले के पारसपुर पहुचने लगे.

पंडित जी के सांस की एक डोर बाकि थी और उसी के भरोसे कई गाव के लोग दो तीन दिन तक उनके दरवाजे पर ही बैठे रहे. तीन दिन बाद उन्हेंने पहली बार आंख खोल कर पानी लाने का इशारा किया. 
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शिव राम जी के कई फ़ौज के मित्रो को ये बात पता चली. 10 दिन बाद जब उन्हें काफी राहत मिल गई थी, तो पूरी एक जीप भर के फौजी जवानो की टोली उनके दरवाजे पर पहुची. लेटे लेटे ही उन्होंने अपने मित्रो का अभिवादन स्वीकार किया. जल पान के बाद फौजियो में से कोई बोला, "पंडित जी! कैसे लोग थे कुछ याद है?"

शिव राम अभी भी बहुत ज्यादा बोलने में असमर्थ थे. इससे पहले वे कुछ इशारा करें, उनके बड़े लडके ने तुनक कर कहा, "हमारे बाबू जी से बहुत से लोग चिढ़ते हैं और विश्वनाथ सिंह तो खासकर. हो न हो इसमे उसी का हाथ है", और बाजार वाली घटना भी बताना चाही. किन्तु बीच में ही शिव राम ने अपने लडके का हाथ भींचा और, उंगली से अपने होठ ढक के चुप रहने का इशारा किया. फिर आकाश की तरफ हाथ उठा के कहना चाहा कि "सब भगवान् की इच्छा है, जो हो गया सो हो गया".

इसके बाद कई बार पोलिस आई और फौजी मित्र आये, पर उन्होने किसी का भी नाम लेने से मन कर दिया, ऐसा कह कि कि मैंने "अपने कुछ गाव के लोगो को क्षमा किया है, इसमे मेरा ही स्वार्थ है."
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रात का दूसरा पहर रहा होगा. आंगन में जहाँ शिव राम सोये थे, धप्प करके के आवाज आई. वो जग गए. एक इंसान का मुह ढाका हुआ साया दिखा, चारपाई के करीब आया, और पाँव के पास आकर बैठ गया. उसने अपना मुह खोला और शिव राम ने टार्च से लाइट मारी. बगल के गाव के ठाकुर विश्वनाथ सिंह का चेहरा साफ़ साफ़ दिखाई पड़ रहा था. वो पंडित जी के पैरो पर लिपट गए, और आंसुओ से कहें तो चरण भिगो गए. 

शिव राम बोले, "विश्वानाथ जी, मै आपको और आपके लडके को उसी दिन पहचान गया था, किन्तु फ़ौज में मैंने एक कसम खाई थी कि अगर हाथ उठाऊंगा तो अपने गाव- देश की भलाई के लिए, नहीं तो कभी हाथ नहीं उठाऊंगा. बस उसी के नाते आपको माफ़ कर दिया है."

"कृषि मास्टर! मै माफ़ी के काबिल नहीं हू, आप अपनी बन्दूक से मुझे दाग दीजिये" विश्वनाथ बाबू एक लम्बी सांस खींच कर बोले. शिव राम बोले, "जाइये! घर जाइये, कल मै स्कूल के लिए पैसा मागने आऊंगा, जी खोल के प्रायश्चित कर लेना और जितना हो सके दान कर देना."

ठाकुर विश्वनाथ ने 15 -20 बीघा जमीन छोड़ के बाकी सब पंडित जी को दे दिया, जिस पर उन्होने इंटर कालेज और एक डिग्री कालेज भी खोला.

शिव राम ने अपना बदला ले लिया था.
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Monday, February 20, 2012

विज्ञापन

बेस्ट की बस के एक कोने में लटके टी वी में,
अचानक से हलचल हुई.
अष्टावक्र की स्थिति में खड़े होने के बावजूद,
लोगो की उत्सुकता जगी.
बहुत सारे रंगीन विज्ञापनो के बीच,
चार्ली चापलिन की एक ब्लाक एंड व्हाइट मूवी.

अब यात्री चार रुपये में मनोरंजन कर तो देते नहीं है.
ऐसे आंकड़े आये होँगे की, संत्रस्त परस्थितियों में-
इंसान ज्यादा चौकन्ना रहता है.
'अड्वरटाइजमेंट दिखाओ कालेज का!'
कौन सा बाप चाहेगा कि बच्चा ऐसी भीड़ बने?

इन विज्ञापनो ने बस में भी नहीं पीछा छोड़ा,
धक्को का नैसर्गिक सुख भी तोडा.
जबकि इनकी पहले से ही पकेजिंग कर दी गई है,
सारी या एक्सक्यूज मी के अर्थहीन शब्दो से.
आपके कष्ट को और मंगलमय और उद्देश्य पूर्ण-
बनाया गया है 'प्रचार' डाल कर.
अब प्रचार के बिना तो 'इंसान' को पता चलेगा नहीं कि,
"कन्या भ्रूण हत्या एक जघन्य अपराध है",
इत्यादि!

तड़के ही कई मेसेज मोबाइल पर रहते हैं,
अब तो अदात हो गई है.
पहले उठा के देखता था,
किसी जान-पहचान वाले का तो नहीं.
अब पता चल गया है कि नए रिश्तेदार कैसे बने.
मेरे अकाउंट के दस हज़ार रुपयो का भेद खुल चुका है.
और कोई बैंकर उनकी फ़िराक में है.
पर्सनल लोन या क्रेडिट कार्ड की आड़ में.

खाने की टेबल पर ऐसे ही ढूंढा,
की कुछ मिल जाये जिसे टी वी, रेडियो, अखबार,
इन्टरनेट, मोबाइल,
रोड, ट्रेन या बेस्ट की बस में,
ना देखा हो.
पर यहाँ तक की मुस्कराहट, और झल्लाहट,
कुछ घर का बना लगता ही नहीं.
बच्चा भी नयी मासूमियत के अदाए,
किसी दूध में मिलाने वाले पाउडर या-
चाकलेट के 'ऐड' से सीख रहा है.

मुझे बताया जा रहा है की मै अपनी बहन को,
होली-दिवाली क्या गिफ्ट दूँ.
अगर ये पहनू तो 'अमिताभ बच्चन' लगूंगा,
अगर वो खाऊंगा तो "युवराज सिंह".
अब जब रिसर्च होगी तब पता चलेगा कि,
"कपडे" आपके शहर के किसी दर्जी ने बनाये थे,
और दवा का क्या असर होता है आपकी
छाती पर, स्वाद पर, और सोच पर!
पर आप "जियो जी भर के"

कभी कभी नहीं समझता की,
बिना यूरिया के गेहू-धान कहाँ पैदा किया गया है.
किस ओर्गानिक फार्म में!
फिर सोचता हूँ,
रेलवे पटरी के किनारे वाले खेत से तो नहीं ही आया होगा.
पर "ये सोच" भी शायद उधार की है.
इसे पाल्यूशन फ्री "पेंट" से सदियो तक,
अंदरूनी सोच को ढकने के काबिल बनाया गया है,
यह भी मुझे बताया गया है!

वैसे तो सब जानकारियाँ मुफ्त है गूगल पर,
ज्ञान के लिए एक आभासी गुरु बैठा है वहा.
साइड के कालम में 'ऐड वर्ड' का छूरा लिए.
चुपके से जो आपके अवचेतन मन के अंगूठे  को
बिना आपसे दक्षिणा मागे काट लेगा.
फिर दांत निपोर के कहेगा: 'नो फ्री मील्स'.

"डिंग डांग: आप मेरे ब्लाग पर आ रहे प्रचार पर क्लिक करें!
आप जीत सकते हैं एक.........
आफर सिर्फ आज के लिए, नियम शर्ते लागू"
पता चला आपको क्या!
ऐसे ही चुपके से आपकी चपातियो और पूजाओ में-
विज्ञापन की सोच घुसा दी जाती है,
बिना "डिंग डांग" किये!

चुनाव में तो पहले से ही प्रचार वैद्य था.
'हमारे' दूरदर्शी नेता!
१२१ करोड़ के घर तो जा नहीं सकते.
गए भी तो क्या मुह ले के जाएँ,
पांच-पांच साल करके ६५ साल होने को आये है.
जुगत लगानी होगी.

जैसे की सिगरेट-दारू की कम्पनी बहादुरी का इनाम देकर,
अपने काली करतूतो को ढकना चाहती है.
ऋषि मुनि को भी विज्ञापन की जरुरत है.
उनके लिए परोक्ष रणनीति है.
अब भगवान् को चढाने के लिए 'मिनरल वाटर' में भरा-
गंगा का पानी हरिद्वार से लिया है या कानपूर से.
फर्क तो पड़ता है न भाई!

इस मोह-माया से निकालने के लिए,
तपस्या करने को हिमालय पर भी जगह नहीं है,
वहां भी शायद कोई बुद्धिमान देवता,
अपना बैनर लगा दे, किसी उर्वशी-मेनका को ले कर.
स्वर्ग जाइये, साथ में एक इंट्री फ्री-कॉम्बो आफर.
कम से कम तपस्या के वर्ष,
अगर इस साल व्रत शुरू करते हैं तो!

विज्ञापन का कोकीन मिला है हर चीज़ में.
सब पर एक खुमार सा छाया है,
अब वो माफिया सिर्फ टी वी के भरोसे नहीं है,
नए नए माध्यम तलाश कर रहा है,
आपके खून में घुल जाने के लिए,
लत लगा कर असहाय बनाने के लिए.

एडियाँ घिसने पर आपको भी मजबूर कर दिया है,
देखिये न, आपका दिल हमेशा 'मोर' मागता है!!
गौर से सुनिए.


Sunday, February 19, 2012

इंडिया अगेंस्ट करप्शन!


जब सुबह के चार बजेंगे,
काली निशा का चर्म होगा,
काफी लोग सो रहे होगे,
अँधेरे से सामंजस्य बिठा के या,
हताश हो कर.
और काफी लोग जाग भी रहे होगे,
शायद वो पूरी रात जगे होंगे.
अपने बच्चे को छाती से चिपकाये.
भूखे पेट नीद नहीं आती है ना.

कि तभी एक घर में अलार्म बजेगा.
जिन लोगो को सोने कि आदत पड़ गई है,
वो कसमसा के फिर से रजाई ओढ़ लेंगे.
बाकि लोग भगवान भास्कर के आने कि तैयारी करेंगे.

फिर १०-१० मिनट पर अलार्म बजने शुरू हो जायेंगे.
मोहल्ले के कई घरो से,
कुल ३०-४० प्रतिशत लोग उठ गए हैं अब तक.
करीब पांच बजे कई गाँव, कस्बे, और शहरो से,
अलार्म, घंटे-घड़ियालो, और अजानो कि आवाजे आने लगी.

पूरा वातावर्ण गुंजायमान हो उठा!
ये लो भगवन धीरे धीरे मुस्कुराते हुए चले आ रहे हैं,
लाल मुह लिए. अँधेरे पर बहुत गुस्सा है!
होना तो यही था, आज २१ दिसंबर था,
तो रात को लगा कि मै हमेशा राज करुँगी.

अँधेरा अपना जीर्ण शीर्ण वस्त्र संभाले,
घरो के कोने, ढके नाली नाबदान में में जा के,
फिर मौके की तलाश में छिप गया.

जो भूखे थे रात भर,
उनमे से कुछ मंदिर के बाहर जा के बैठ गए,
और कुछ गन्दी सड़के इत्यादि साफ़ करने लगे,
सामन ढोने लगे,
खाने को दोनों को ही मिलेगा!
बस कुछ लोगो को नहीं पता चल पायेगा कि,
रोटी कमाने के और क्या तरीके हैं.

अँधेरे का फायदा उठा कर कुछ चोर उच्चक्के,
मोहल्ले से सामान चुरा लिए,
काफी सारा ठाकुर साहब की हवेली में,
और दूसरे गाँव पहुचा चुके थे,
और थोडा बहुत अभी ठिकाने लगाना बाकी था.
पंडित जी ने देखा.
पर चूकी वो अभी अभी सरयू से नहा के आ रहे थे,
और मंदिर जाने को भी देर हो रही थी,
तो कुछ बोले नहीं,
चुपचाप निकल गए!

पर बुधया चौकीदार का छोटा बच्चा,
जिसकी पतंग कल नीम के पेड़ में अटक गई थी,
बिना मुह धोये लेने निकला.
उसको पता था कि,
जो स्कूटर ले के कुछ लोग जा रहे हैं,
वो बिल्डिंग में रहने वाले इंजिनियर साहब का है,
जिसे वो किसी को छूने नहीं दिए हैं कई सालो से.
पिछले साल भी,
जब उसकी बहन बीमार थी,
और डाक्टर के पास ले जाना था,
तब भी नहीं दी थी,
बुधया अपने कंधे पर बिठा के ले गया था.

देखा तो लगा चिल्लाने 'अन्ना हजारे' कि तरह.
चोर! चोर ! चोर!!

और मोहल्ले के जोशीले नौजवानों को बुला लिया,
और फिर जो सुताई हुयी है चोरो की-
पूछो मत!
जिसके हाथ में जो आया, उसी से ले दना दन!!

बहुत सारे लोग तो ये भी कहने लगे कि,
सारा सामान निकालेंगे,
ठाकुर साहब के घर की तलाशी होगी.
बगल के गाँव से भी लायेंगे.
खैर छोड़ो ये सब बातें!!

इतना सब होने के बाद भी,
अभी भी जो लोग सो रहे हैं,
उन्हें नहीं मालूम है की,
उनकी खटिया के सिराहने,
एक कुत्ता पेशाब कर के जा रहा है.

Thursday, February 16, 2012

एक हादसा इस इलेक्शन में

एक हादसा इस इलेक्शन में बहुत आम निकला,
दुधारू गाय के भेस में भेडिया गुमनाम निकला.

दाल-भात तो उसने हमारे गाँव में भी खाया था,
फिर क्योँ राजधानी जा के नमक हराम निकला.

जिसने सबसे ज्यादा चोट पहुचाई है हिन्दुओं को,
दरअसल वो किसी हिन्दू का ही गिरेबान निकला.

मुसलमान समझ कर पत्थर उठाया था जिस पर,
वो ‘कलाम’ निकला, अशफाक उल्ला खान निकला.

गोरखपुर से आये लोगो ने मचाया है बहुत उत्पात
,
शहर से एक देशभक्त मराठा का फरमान निकला.

बम्बई की मुक्कमल तस्वीर में वादियाँ ख़ूबसूरत थीं,

योँ ही नहीं फुटपाथ पर सोने कोई इंसान निकला.

Tuesday, February 14, 2012

दिल के आँगन में


दिल के आँगन में बरसो में आज चांदनी उतरी है.
उनके कदमो की चापो से राग-रागिनी छितरी है.

वही ठहाके कानो में गूंजा करते थे रह रह कर,
वही कसीदे-जुमले गुनते रहते थे हम हर पथ पर.

भूले मीतो के यादो से, रात बहुत ही अखरी है.
दिल के आँगन में………

कच्ची इमली की खातिर पत्थर खूब उछाले करना.
आमो की टहनी पे दिन भर झगडा कर झूले रहना.

यादो के गलियारो में बचपन की शरारत बिखरी हैं.
दिल के आँगन में………

गले लगाया, देर रात के चायो की भी चुस्की ली,
कक्षा के अध्यापक की भी नक़ल उतारी थोड़ी सी.

यारी की सारी बातो में यादें भूली बिसरी है.
दिल के आँगन में बरसो में आज चांदनी उतरी है.

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कुछ लेने मेरे उन दोस्तों के लिए जो प्रतिस्पर्धा में ही जिंदगी का मज़ा गवाए जा रहे हैं:


आये, बैठे, चाय पिए, फिर धंधे का गुणगान किये,
बाते जाने कहाँ-कहाँ की, बच्चे पर अभिमान किये.

उनकी बातो में केवल अब दुनिया-दारी बिखरी है,
दिल के आँगन में फिर से काली छाया पसरी है…..

सोचा था! दिल के आँगन में……….

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Monday, February 13, 2012

प्रेम के दो युगल हंस


प्रेम के दो युगल हंस,
बस लिए वादो के अंश,

नये प्यार की उमंग,
कर लिए दुनिया से जंग.

ना सुना किसी का सत्संग,
खड़े देख रहे माँ बाप दंग.

मिला दाल रोटी का दंश,
तब हुई मोह माया भंग.

आकर बने फिर घर अंग,
देख रहे हैं टी वी संग संग.

अब महगाई से नहीं रंज
परिवार धन्य! बस चादर तंग!

Friday, February 10, 2012

शहद की मक्खियाँ


तरक्की की राह में रोड़ा था मेरा मकां,
सड़क से बुलडोजर ले आई आंधियां

मिठाई बनाने वाले भी बेदखल हो गए,
शहद की मक्खियाँ अब जाएँगी कहाँ?

सारी जमी तुम्हारी, श्मशान तुम्हारे हैं,
आम आदमी की लाश दबाई जाये कहाँ.

तितलियाँ तो बाजार से गुलाब मागती है,
गेहू और धान के खेत लगाये जाये कहाँ.

आंगन में बसा कर, रोज दाना देते हैं,  
 गौर्रया अब अपने अंडे बचा पाये कहाँ? 

Monday, February 06, 2012

फूल की ख़ामोशी

फूल की एक ख़ामोशी, को देख पाए कौन,
दिल कांटे का छलनी हो, तो सहलाए कौन.

मेरी उदासी का सबब कोई पूछता नहीं,
मै खुद से खफा हूँ, तो फिर मनाये कौन.

एकलव्य को ढूढते हुए आये कई गुरु जन,
सवाल ये है कि, नया नया अंगूठा लाये कौन.

नासमझ हैं जो ख़ुदकुशी कर बैठते हैं, मगर!
रोटी को मचलते बच्चो का मुह देख पाए कौन?

सर्द रात बितानी है बिना छत की आस के,
पन्नी का गरल घूँटने को तलब ठहराए कौन.

सज धज के खडी हूँ, नीलाम होने के लिए,
हमें भी सिंदूर की आस थी, ये बताये कौन?

'राम' के दरबार में सुबो-शाम गुजर जाती है.  
मुफलिस के जले घर को देखने जाये कौन?

Saturday, February 04, 2012

दिल चीर कर

आभार: विकिपेडिया
‘दिल चीर कर’ कमाने की इच्छा पूरी हो गई,
भगवान् बनाने के लिए, ‘एम् डी’ जरूरी हो गई.

दूध हम पीते थे जिस माँ के तनो से लिपट कर,
उसको ‘उठा’ कर के सजाना, डाक्टरी हो गई.

सलामत ‘जिगर’ चाहिए तो धरो पूरे पांच लाख,
सुश्रुत के चोले में हकीमी, अन्गुलि-मारी हो गई.

जाइए, जंचवा के निर्णय लीजिये, बच्चे का भ्रुड,
आदमी के जमीर को भी ‘एक गुप्त बीमारी’ हो गई.

पांच सौ में खून दे कर, दारू के पैसे ले गया.
आजादी की सुभाष! ‘कितनी मजदूरी’ हो गई?

Thursday, February 02, 2012

यही अच्छा

दर्द अश्क बन के बह जाये, यही अच्छा.
मुह पे ‘ना’ कह के चला जाये, वही अच्छा.

नदी उस पार क्या है, माझी को न मालूम,
मजधार में तेरे संग डूबा जाये, यही अच्छा.

बहुत रो लिया, याद करके, बहुत तडपे हैं,
चलो कुछ ‘शेर’ लिक्खे जाये, यही अच्छा.

मौत के बहानो को सिपे-सालार क्या रोके?
रक्षा बंधन के धागे लपेटे जाये, यही अच्छा.

ठण्ड और भूख है, तन्हाई का बुरा आलम है,
माँ को ये बात न बताई जाये, यही अच्छा.

कोई हिन्दू बुलाएगा, कोई मुस्लिम बुलाएगा,
‘उसको’ दिल में सजाया जाये, यही अच्छा.