मै शुरू शुरू में चेन्नई (तब मद्रास था) पढाई करने गया, तो अक्सर दोस्तों से मिलाने बंगलोर जाया करता था. जहाँ तक संस्कृति सभ्यता की बात है, उत्तर भारत में पाले बढे होने के कारण मुझे बहुत ही ज्यादा अंतर महसूस हुआ. धीरे धीरे अभ्यस्त हो गया. और मै इतना बताने में भी सक्षम हो गया कि ये बोली तमिल है, तेलगु है या फिर कन्नड़. जहाँ तक ऑटो रिक्शा वालो कि बात है सभी को आती है, बस अधिक किराया वसूलने के चक्कर में आपकी भाषा से अनजान बनते हैं. खैर भोले भाले कहीं के रिक्शे वाले नहीं होते हैं.
उस दिन मेरी भी रात की बस थी चेन्नई के लिए. बस के पिक-अप पॉइंट पे बस आई और सभी लोग चढाने लगे. एक गोरी चमड़ी वाला युवक भी था जो यूरोपियन मूल का लग रहा था. उसके साथ थोडा ज्यादा सामान था तो बस वाले ने कुछ ज्यादा पैसे मागे होगे. इस पर बहस हुने लगी. पहले तो वह नव युवक टूटी फूटी इंग्लिश में बात कर रहा था. इससे मुझे समझ में आया की वो ब्रिटिश मूल का तो नहीं है. किन्तु जब कंडक्टर ने भाषा न समझाने का बहाना बनाया, तो वो हिंदी में बोलने लगा. ये एक सुखद अनुभव था, कि जहाँ हमारे दक्षिण के भाई बंधु हिंदी भाषा का ये कह के तिरस्कार कर देते हैं, कि इससे उनकी क्षेत्रीय भाषा को खतरा है और कहाँ ये युवक जो कि ब्रिटिशर न होते हुए भी हिंदी बोल रहा है.
किन्तु बस बाला भी बस वाला था. उसने हिंदी भी न जानने का बहाना बनाया. इस पर वो युवक उसे कन्नड़ में मोलभाव करने लगा. ये देख के मैंने दांतों तले उंगली दबा ली. और हद तो तब हो गई जब उसने ये बोला की 'नान तामिल पेस वेंदुम' मतलब 'मुझे अपनी तमिल का अभ्यास करना पड़ेगा.' मेरी समझ में आ गया कि यूरोपियन व्यापारी किस तरह आपकी भाषा ही सीख कर आपका ही सामान आपको बेच सकते हैं. मेरे भोले भाले हिन्दुस्तानियो भाषा कि लड़ाई में अपना वक्त न जाया करो. सब भाषा अच्छी है, सब भाषाओँ का सम्मान है. माना कि क्षेत्रीय या मात्र भाषा का अपना अलग ही स्थान होता है, किन्तु अधिक से अधिक भाषाएँ सीख कर आप अपने ही ज्ञान का दायरा बढ़ाएंगे.
संत कबीर ने क्या अच्छी बात की, ये किसी दक्षिण भारतीय को नहीं पता, इसी तरह संत तिरुवल्लुर ने क्या ज्ञान बाटा ये उत्तर भारतीय नहीं जान पाएंगे. इसलिए अधिक से अधिक भाषाएँ सीखिए. और ये बात उत्तर भारतीयो पर ज्यादा लागू होती हैं, क्योन्कि सबसे ज्यादा शिकायत करने वाले यही लोग है कि अन्य लोग हिंदी नहीं सीखते. किन्तु एक बात जान लीजिये कि उत्तर भारतीयो का ही अन्य भाषा ज्ञान सबसे ख़राब है. ये मेरा व्यक्तिगत अवलोकन है. मुझे हमेशा ये खेद रहता है कि अत्यधिक अकादमिक दबावो में रहते हुए, और इंग्लिश में काम चल जाने कि वजह से मै अन्य भाषाएँ नहीं सीख पाया.
2 comments:
now its times for Booker Award ....
Bhai aap bhi majak karte ho :)
Post a Comment